SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1088 नैषधमहाकाव्यम् / धर्मके विषय में (विहितका त्यान तथा निषिद्धका आचरण करनेसे पाप होनेके भयसे बाकी (नित्य-नैमित्तिकभिन्न ज्योतिष्टोम आदि, अथवा-वेद-विहितसे भिन्न स्मृति-पुराणप्रतिपादित ) वैदिक धर्ममें ही स्थिर रहना ( उसका आचरण करना) चाहिये / [ श्रुतिस्मृति-प्रतिपादित कन्यादान अहिंसा आदि धर्मका पालन तथा मातृगमन आदि धर्मका त्याग आपलोग भी करते ही हैं, अतः शेष ज्योतिष्टोमादिका भी आचरण श्रुति-स्मृति- प्रतिपादित होने के कारण करना ही चाहिये / अथवा पाठा०-एकमत होनेके कारण सब ( नास्तिकों) को भी किसी ( अहिंसा, कन्यादान आदि ) वेदप्रतिपादित अधर्ममें ही स्थिर रहना चाहिये, तथा विहित धर्मके त्याग और निषिद्ध धर्मका आचरण करनेपर पाप लगनेके भयसे परस्परविरुद्ध मत होनेपर भी वेदप्रतिपादित धर्म में ही स्थित रहना चाहिये और वेद-प्रतिपादित होने के कारण शेष काम्यधर्म ( ज्योतिष्टोमादि यज्ञ) में ही स्थित रहना चाहिये / इस प्रकार इस इलोकसे 'जो न जानताऽस्मीति' 'एकस्य विश्वपापेन' ( 17:54-55)' तथा 'स्वञ्च ब्रह च ( 17.73)' इत्यादि आक्षेपोंका उत्तर दे दिया गया है ] // 10 // बभाण वरुणः क्रोधादरुणः करुणोग्झितम | किं न प्रचण्डात् पाषण्ड-पाश ! पाशाद् विभेषि नः ? 11011 बभाणेति / अथ वरुणः जलेशः, क्रोधात् रोषात , अरुणः रक्ताङ्गः सन् , करुणो. ज्झितम् उज्झितकरुणं, निष्कृषं यथा तथा इत्यर्थः / बभाण उवाच / तदेवाह-याप्यः कुत्सितः, पाषण्डः वेदबाह्यापसदा, पाषण्डपाशः।'याप्ये पाशप' तत्सन्बुद्धौ पापण्डपाश! रे नास्तिकाधम ! प्रचण्डात् भयङ्करात् , नः अस्माकं, पाशात् पाशायुधात . न बिभेपि किम् ? न त्रस्यसि किम् ? 'निजपाशेन बध्नाति वरुणः पापकारिणः इति किं न श्रुतम् ? इति भावः // 101 // ___ इस ( यमके इस प्रकार ( 17 / 95-100 ) कहो ) के बाद क्रोधसे लाल होकर वरुण निर्दयतापूर्वक कहा-हे निन्दित पाषण्डवाले ( नास्तिकाधम चार्वाक ) ! मेरे भयङ्कर पाइ (शास्त्रविशेष ) हे नहीं डरते हो क्या ? // 101 / / मानवाशक्यनिर्माणा कूर्माद्यङ्कबिला शिला / न श्रद्धापयते मुग्धस्तिथिकाध्वनि वः कथम् ? / / 102 / / मानवेति / मुग्धाः ! रे मूढाः !, मानवानां नराणाम् , अशक्यनिर्माणा निर्मातुम अशक्या, कूर्मादि कच्छपवराहादि, अङ्क चिह्नं यस्य तादृशं, बिलं विवरं, चक्रमिति यावत् / यस्याः तादृशी, शिला पाषाणखण्डः, गण्डकाख्यनदीविशेषसम्भूता शालग्रामशिला इत्यर्थः / व युष्मान् , तिर्थिकाध्वनि श्रोत्रियमार्ग कथम् , न श्रद्धापयते ? न विश्वासयति ? शास्त्रोलक्तज्ञणसंवादिस्वादिति भावः // 102 // ( अब 'देवश्चेदस्ति सर्वज्ञः ( 17 / 76 ) का उत्तर देते हैं-) अरे मूर्यो ! मनुष्योंसे नहीं 1. 'पाखण्डपाश' इति कवर्गमध्यः 'प्रकाश' सम्मतः पाठः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy