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________________ नैषधमहाकाव्यम् / देहे शरीरे, अस्मीति धीः अहमिति बुद्धिः / 'अस्मीत्यव्ययमस्मदर्थानुवादे अहम\ऽपि' इति गणव्याख्याने / 'पादप्रहारमिति सुन्दरि! नास्मि दये' इत्यादिप्रयोगश्च / तस्य देहस्य, दाहे भस्मीभावे सति, वः युष्माकम् , एनसा पापेन, किम् ? कत्त शक्यते इति शेषः। गौरोऽहं कृशोऽहमित्यादिबुद्धिप्रामाण्याद्देहादतिरिक्तः फलभोक्ता पापेन नरकभोगादिकं न किञ्चिदपि कत्त शक्यते इति भावः / अथ पापपुण्यफलभोक्ता देहव्यतिरिक्त आत्माऽस्ति तत्रैव कर्मफलमिति चेत् तत्राह-क्वापीति / परसाक्षिके परो वेदादिः, साक्षी प्रमाणं यस्य तस्मिन् देहातिरिक्तया वेदप्रतिपादिते, क्वापि यत्र कुत्रचिदात्मान्तरेऽपि, आत्मेति हेतोः आत्मेति कृतनामतया, आत्मत्वावि भवेत् ?.अपि तु एकेनात्मना पापे कृते आत्मत्वेन तदविशेषात् आत्मान्तरस्यापि तत्फलभोक्तृत्वं कथं न स्यात् ? इत्यर्थः / देहातिरिक्तस्यात्मनः फलभोक्तृत्वाभावात् एतद्देहनाशे पापफलभोगस्यासम्भवाच्च यथेच्छमाचरतेति भावः // 51 // जिस देहमें ( मैं दुर्बल हूं, मोटा हूं, इत्यादि रूप ज्ञान होनेसे ) 'आत्मा', ऐसा विश्वास है अर्थात् जिस देहको 'आत्मा' मानते हो, उस ( देह ) के ( मरने के बाद ) जल जानेपर ( देहात्मवादी) तुमलोगोंको ( उस देहके द्वारा किये गये ) पापसे क्या प्रयोजन ? अर्थात वह पाप आपलोगोंका क्या कर सकता है ? और देहातिरिक्त वेदादि प्रतिपादित किसी दूसरे आत्मामें भी वह पाप-पुण्यजन्य फल क्यों नहीं होता ? अर्थात एक व्यक्तिके किये गये पापका फल दूसरे व्यक्तिको भी मिलना चाहिये, ऐसा नहीं होता, अतः देहातिरिक्त 'आत्मा' नामक कोई वस्तु नहीं है। [इसका आशय यह है कि-'देह ही आत्मा है, या देहाभिन्न अन्य कोई ?? यदि प्रथम पक्ष मानते हैं तो पापादि कर्म करने वाला शरीर मरनेपर जलकर भस्म हो जाता है, अत एव उस पापादि कर्मका फलभोक्ता कोई शेष नहीं रह जाता, अतः स्वच्छन्द होकर प्रत्यक्ष आनन्दादि फलप्रद परस्त्रीसम्भोग आदि करना चाहिये तथा यदि द्वितीय पक्ष ( देहातिरिक्त आत्माका होना ) मानते हैं तो वह देहातिरिक्त आत्मा स्वसाक्षिक है या परसाक्षिक ? इसमें भी प्रथम पक्ष मानकर 'अहं' ज्ञान देहविषयक ही होगा, क्योंकि देहभिन्न किसी दूसरेका आश्रय सिद्ध नहीं होता, इस कारण पापजन्य फल शरीरके भस्म हो जाने पर कुछ नहीं कर सकता, यही बात पुनः सिद्ध होती है / दूसरा पक्ष मानकर वेदादिसाक्षिक देहान्तर, कालान्तर या देशान्तरके फलभोक्ता होनेसे उस पापका नरक आदि फल वेदादिप्रतिपादित आत्माको होता है, ऐसा स्वीकार करते हैं तो वह आत्मा होनेके कारण ही फलभोक्ता होता है और सर्वगत आत्माके अविशेष होनेसे किसी 1. श्लोकोऽयमेवं विद्यते 'दासे कृतागसि भवत्युचितः प्रभूणां पादप्रहार इति सुन्दरि नास्मि दूये / ,' उपत्कठोरपुलकाङ्कुरकण्टकार्यद्भिद्यते मृदु पदं ननु सा व्यथा मे // ' इति /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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