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________________ द्वादशः सर्गः। 731 प्रहारकर कटे तथा गिरे हुए शत्रुके मस्तकको यह राजा हठपूर्वक भूमिमें लिटा देता है, पक्षा०-इसके सामने लड़कर ( और बादमें, अथवा-बिना लड़े ही) अपना तथा दूसरे ( इस राजा ) का अन्तर जानकर बाण-समूहों को अलग रखकर इसी राजाके चरणके सामने गिरते हुए अर्थात् शरणमें आकर नमस्कार करते हुए एवं अपने भयाधिक्यके भारसे खिन्न अत एव झुके हुए अर्थात् शरणमें आकर नमस्कार करते हुए शत्रुमस्तक को इस राजाने हठपूर्वक भूमिमें लोटा दिया अर्थात् 'इस महापराक्रमी राजासे हीनशक्ति हो कर भी मैंने युद्ध किया, इस राजासे अपने अपराध को क्षमा करा लेनेमें ही कल्याण है' इस विचारसे इसके चरणके सामने पृथ्वी पर अपना मस्तक टेकने लगे / [ जो राजा आद्यन्त युद्धनिरत रहे उनके शिरको काटकर इस नेपाल नरेशने भूमि पर लिटा दिया तथा जो राजा युद्ध करके ( या विना युद्ध किये भी) निःशस्त्र होकर अपने अपराधके भयसे नम्र मस्तक हो इसके चरणों में पड़ गये, उनके मस्तकों को क्षमा करने से भूमिपर लिटा अर्थात् झुका दिया / यह राजा शत्रुविजेता तथा शरणागतवत्सल है, अत एव इसका वरण करो] // न तूणादुद्धारे न गुणघटने नाश्रुतिशिखं समाकृष्टौ दृष्टिर्न वियति न लक्ष्ये न च भुवि / नृणां पश्यत्यस्य वचन विशिखान् किन्तु पतित द्विषद्वक्षःश्वभैरनुमितिरमून गोचरयति / / 46 / / नेति / नृणां रणद्रष्टणां पुंसां, 'नृ च' इति विकल्पात् 'नामि' इति दीर्घप्रतिषेधः, दृष्टिः, अस्य राज्ञः, विशिखान् शरान् , वचन कस्मिन्नपि, इत्यस्य सर्वत्र सम्बन्धः; तूणात् निषङ्गात् , उद्धारे उद्धरणकाले, न पश्यतीति सर्वत्र सम्बध्यते; गुणो मौर्वी, 'मौर्वी गुणो ज्या' इति धनञ्जयः, तेन घटने सन्धाने, न, आश्रुतिशिखम् आकर्णान्तं, समाकृष्टौ गुणाकर्षणे, न, वियति मोचनानन्तरम् आकाशे, न, लक्ष्ये वेध्ये, न, भुवि शत्रन् विवा ततो निर्गत्य प्रवेशाश्रये भूप्रदेशे, च वचन कुत्रापि, न पश्यति, किन्तु पतितानां युद्धहतानां, द्विषतां वक्षःसु श्वनैः शरवेधजन्यरन्]ः, 'रन्ध्र श्वभ्रं वपा सुषिः' इत्यमरः, अनुमितिरानुमानिकज्ञानम् , अमून् विशिखान् , गोचरयति विष. यीकरोति, एतद्राजनिक्षिप्तबाणानां विद्यमानत्वे कुत्रापि प्रत्यक्षप्रमाणाभावेऽपि शत्रु. वक्षसि दृष्टच्छिद्रस्य अन्यथाऽनुपपत्त्या तदर्शनेनैव बाणानामनुमितिर्भवतीति भावः / इत्थञ्च बाणानां वेगातिशयोनिः // 49 // ___(इस नेपालनरेशके युद्धकौतुक-दर्शकों की ) दृष्टि इसके बाणों को कहीं भी-तरकस से निकालनेमें नहीं, मौवीं ( धनुष की डोरी) पर रखने में नहीं, कर्णाग्र तक खींचने में नहीं, आकाशमें नहीं, लक्ष्य (निशाना ) में नहीं और पृथ्वी पर नहीं देखती हैं; किन्तु गिरे हुए शत्रुओंके हृदय ( पाठा०-नेत्रों ) के छिद्रोंसे ( किया गया ) अनुमान इन (बाणों) को गोचर कराता ( दिखलाता ) है / [ यह नेपालनरेश इतनी तीव्र गतिसे बाणों को शत्रुओं . 46 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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