SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षोडशः समः / 1021 इत्यर्थः, तदीक्षणेन नलदृष्टया सह, अर्द्धपथे अर्द्धमार्गे, समागमं संयोगं, ययौ प्राप, दमयन्ती लज्जाभरात् नलसमक्षं तन्मुखं द्रष्टुं न शशाक, तं पुरीदर्शनेन अन्यमनस्कं विविच्य यदैव कटाक्षमकरोत् तदैव नलेनापि दृष्टिप्रत्यावर्तनात् तदद्दष्टया दृष्टिमेलनात् लजिता अभवत् इति निष्कर्षः / उभावपि अन्योऽन्याभिप्रायं जज्ञतः इति भावः // 122 // - पुरी ( अपनी राजधानी ) को देखकर ( पाठा०-देखनेसे ) थोड़ा विषयान्तरासक्त हैं ( अत एव इस समय मैं इन्हें अच्छी तरह देख लूं), ऐसा विचारकर प्रिय (नल को देखने ) के लिए चुपचाप किया ( दमयन्तीका ) कटाक्ष उस (पुरी) के देखनेसे एकाएक लौटे ( दमयन्तीको देखने के लिए नगरीका देखना छोड़कर बीचमें ही फिरे ) हुए नलके नेत्रसे आधे मार्गमें संभोगको पा लिया। [नलको पुरी देखनेमें कुछ आसक्त जानकर दमयन्तीने सोचा कि 'इस समय प्राणप्रियकी दृष्टि पुरीके देखने में आसक्त है अत एव इन्हें मैं इस सुअवसर पर अच्छी तरह देख लूं; क्योंकि ये जब मुझे देखते रहते हैं तब मैं लज्जावश इन्हें अच्छी तरह नहीं देख पाती' ऐसा विचारकर ज्योंही दमयन्तीने नलको देखने के लिए नेत्र उठाया, त्योंही दमयन्तीको देखने के लिए पुरीका देखना बीचमें ही छोड़कर नलने अपनी दृष्टि दमयन्तीकी ओर लौटा लिया और इस प्रकार दोनोंकी दृष्टियोंका आधे मार्गमें ही सम्मिलन हो गया और इससे दमयन्ती लज्जित हो गयी तथा दोनोंने परस्परके भावको समझ लिया / दमयन्ती तथा नलमें परस्पर इतना अधिक स्नेह था कि वे दोनों एक क्षण भी परस्परके देखनेके विघ्नको नहीं सहन कर सकते थे ] // 122 // अथ नगरधृतैरमात्यरत्नैः पथि समियाय स जाययाऽभिरामः / मधुरिव कुसुमश्रिया सनाथः क्रममिलितैरलिभिः कुतूहलोत्कः॥१२३।। अथेति / अथ पुरीनिरीक्षणानन्तरं, जायया भार्यया, अभिरामः रमणीयः, सः नलः, कुसुमश्रिया पुष्पसम्पदा, सनाथः युक्तः, मधुः वसन्तः, क्रमेण अनुक्रमेण, पारम्पर्येण इत्यर्थः, मिलितः एकत्र समागतैरित्यर्थः, कुतूहलोत्कैः कुतूहलाय कौतुकाय, मधुपानजनितानन्दलाभायेत्यर्थः, उत्कः उत्सुकैः, अन्यत्र-दमयन्तीसहितनलदर्शनार्थ साग्रहविस्मयेन, उत्कैः उत्सुकैः, अलिभिः मधुकरैरिव, नगरे तैः संरक्षणाय स्थितैः, ध्रियतेः कर्तरि क्तः / अमात्यरत्नैः मन्त्रिवर्यैः सह, पथि नगरपथे, राजमार्गे इत्यर्थः, समियाय सङ्गतः॥ 123 // ___ इस (पुरोको देखने ) के बाद स्त्री ( दमयन्ती) से मनोहर वे ( नल) कुतूहलसे उत्कण्ठित ( अथवा-जायासहित नल दर्शनके लिए उत्कण्ठित अथवा-जाया..."ऊपर गर्दन उठाये हुए ) नगरमें ( रक्षार्थ ) स्थापित क्रमशः आये हुए श्रेष्ठ मन्त्रियोंसे उस प्रकार मिले, जिस प्रकार (गुलाब-चम्पा आदि ) पुष्पोंकी शोभासे युक्त तथा मनोहर वसन्त ऋतु क्रमशः ( पशि बद्ध तू होकर ) आये हुए कौहलसे (या पुष्परसपानके आनन्द-लमा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy