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________________ 1016 नैषधमहाकाव्यम् / खरस्पौं, अस्निग्धगात्रौ इत्यर्थः, चकार विदधे। अनयोः परस्पराङ्गसङ्गहेतुके रोमांचे स्खलनप्रतिबन्धार्थत्वमुत्प्रेक्षते // 114 // 'अतिशय कोमल तथा चिकने ( पक्षा-सस्नेह ) शरीरवाली यह ( दमयन्ती ) अधिक दबाने ( कसकर पकड़ने ) में भययुक्त बाहु द्वयवाले नल ( के हाथों ) से स्खलित ( फिसलकर गिर ) जायेगी' ऐसा ( विचारकर ) प्रत्युत्पन्नबुद्धि कामदेवने उस (नल ) तथा वधू ( दमयन्ती ) को अधिक रोमाञ्चसे कर्कश कर दिया। [ 'दमयन्ती अतिशय कोमल तथा स्निग्ध शरीरवाली है, अतः नल 'यदि इसे मैं कसकर पकडूंगा तो इसे कष्ट होगा' इस भयसे दनयन्तीको रथपर चढ़ाते समय कसकर नहीं पकड़ेंगे और ढोला पकड़नेसे यह नलके हाथसे फिसल ( सरक ) कर गिर पड़ेगी' इस विचार के मनमें आते ही प्रत्युत्पन्नमति कामदेव ने दोनोंको रोमांचितकर कर्कश ( रूक्ष शरीर युक्त ) कर दिया, जिसमें नलके हाथ से गिरने न पावे / कोमल तथा चिकनी वस्तुको अधिक दबाकर नहीं पकड़ने से फिसलकर गिर जाना सम्भव है, और उसीके कठोर या रूक्ष हो जानेपर गिरनेका भय नही रहता, अतः कामदेव का वैसा करना उचित ही था / दमयन्तीको रथपर चढ़ाते समय नल तथा दमयन्ती दोनोंको तत्काल ही सात्विक भावजन्य रोमाञ्च हो गया ] // 114 / / तथा किमाजन्म निजाङ्कवर्द्धितां प्रहित्य पुत्रीं पितरौ विषेदतुः ? / विसृज्य तौ तं दुहितुः पतिं यथा विनीततालक्षगुणीभवद्गुणम् / / 11 / / ___ तथेति / पितरौ भैम्या मातापितरौ 'पिता मात्रा' इति विकल्पादेकदेशः / आज. न्म जन्यप्रभृति, अभिविधावव्ययीभावः / निजांके स्वोत्संगे, वर्द्धितां पोषितां, पुत्री दुहितरम् / गौरादित्वादीकारः। प्रहित्य प्रस्थाप्य, हिनोतेः क्त्वो ल्यप। तथा ताक , विषेदत्तुः विषण्णौ बभूवतुः, किम् ? नेत्यर्थः, सदेलिटि 'अत एकहलमध्ये-' इत्यादिना एत्वाभ्यासलोपौ। यथा याहक् , तौ भैमीपितरौ, विनीततया विनय सम्पन्नतया, लक्षगुणीभवन्तः लक्षगुणत्वेन सम्पद्यमानाः, गुणाः शौर्यादयः यस्य तथोक्तं, दुहितुः पतिं जामातरम् 'विभाषा स्वसृपत्योः' इति विकल्पात् षष्ठया अलुक् / तं नलं, विसृज्य सम्प्रेष्य, विषेदतुरिति पूर्वक्रियया अन्वयः / कन्यावियोगापेक्षया गुणशालिजामातृवियोगस्तयोर्नितरां विषादकारणमभूदिति भावः // 115 // माता-पिता जन्मसे अपने गोदमें बढ़ायी हुई पुत्री ( दमयन्ती ) को भेजकर वैता दुःखित हुए क्या ? जैसा नम्रतासे लाख गुना होते हुए (शोर्यादि ) गुवाले कन्याके पति अर्थात् जामाता (नल) को भेजकर दुःखित हुए / [ जन्मसे गोदमें पाल-पोसकर बढ़ायी गयी पुत्री दमयन्तीके वियोगसे माता-पिताको उतना दुःख नहीं हुआ, जितना गुणवान् जामाता नलके वियोगसे हुआ ] // 115 // निजादनुव्रज्य स मण्डलावधेर्नलं निवृत्तौ चटुलापतां गतः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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