SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 686 आस्येन मुखेन, मीलितं मिश्रितं, मुखस्य प्रतिविम्बयुक्तमिति भावः, जलस्य गण्डूष पानार्थ करतं गण्डूषितजलमित्यर्थः, क्षणं क्षणामात्र, गण्डूषे जलदानकाले इति यावत् , न पपौ न पीतवान् , अन्यथाप्रतिबिम्बादिकार्यायोगादिति भावः, किन्तु यत्र जले, प्रतिबिम्बितं प्रतिफलितं, तस्या मुखं चुचुम्ब चुम्बितवान् // 65 // ___ उत्पन्नानुराग किसी युवकने आगे स्फुरित होती ( शोभती) हुई कामधनुषके समान सुन्दर भौंहोंवाली पानी पिलाती हुई किसी स्त्रीके मुखके प्रतिबिम्बयुक्त ( अथवा पाठा०अपने मुखके पास चुल्लू या अञ्जलिमें लिये हुए ) पानीके गण्डूषको क्षणभर नही पिया, किन्तु उस ( पानोके गण्डूष ) में प्रतिबिम्बित ( उस स्त्रोके ) मुखको चूम लिया ( और बादमें-जलमें प्रतिबिम्बित उसके मुखको चूमने के पश्चात् जलको पिया)। [उस कामुक युवकने सोचा कि 'यदि मैं चुल्लू या अञ्जलिमें लिए हुए जलको पी लूंगा तो इस स्त्रीके प्रतिबिम्बित मुखको चुम्बन नहीं कर सकूँगा, क्योंकि पानीके अभावमे मुखप्रतिबिम्ब भी नहीं रहेगा, अंत एव पहले उसके जलप्रतिबिम्बित मुखको चूमा ओर बादमें जलको पिया / अथवा-भोजनपक्तिमें बैठे हुए लोगोंने जब तक उसके इस जलमें प्रतिबिम्बित स्त्रीमुखका चुम्बन करना नहीं देखा तब तक थोड़ी देरतक जलको नहीं पिया ओर जब लोगोंने उसके इस कार्य को देख लिया तब उसने जलको पी लिया ] // 65 / / हरिन्मणे जनभाजनेऽपिते गताः प्रकोपं किल वारयात्रिकाः / भृतं न शाकैः प्रवितीर्णमस्ति वस्त्विषेदमेवं हरितेति बोधिताः / / 66 / / हरिदिति / हरिन्मणेः मरकतोपलस्य, भोजनभाजने भोजनपात्रे, मरकतमणिनिर्मितभोजनपात्रे इत्यर्थः, अर्पिते पुरतः स्थापिते सति, प्रकोपम् अतिरोषं, गताः प्राप्ताः, अतिशयेन रुष्टा इत्यर्थः, पत्रभाजनभ्रान्त्येति भावः, वरयात्रा प्रयोजनम् एषा. मस्तीति वारयात्रिकाः वरेण सह समागताः, 'प्रयोजनम्' इति ठक् / वः युष्माकं सम्बन्धे, प्रवितीणं दत्तम् , इदं भोजनभाजनं, शाकै 'शेगुन' इत्याख्यतरुविशेषपत्रैः 'शाको द्वीपान्तरेऽपि च / शक्तौ तरुविशेषे च पुमान् हरितकेऽस्त्रियाम् // ' इति मेदि. नी / भृतं कृतं, निर्मितमित्यर्थः, न अस्ति न भवति, किन्तु हरिता हरितया, हरिद्वणयेत्यर्थः / पालाशो हरितो हरित्' इत्यमरः / विषा स्वकान्त्या, एवम् इत्थं, शाकप. निर्मितभाजनमिति वो भ्रान्तिरिति भावः, इति बोधिताः विज्ञापिताः / अत्र कल्पि. तसादृश्यान्मरकतभाजने पत्रभाजनभ्रान्तिनिबन्धनात् भ्रान्तिमदलङ्कारः // 66 // पन्ना मणिके बने हुए भोजनपात्र (थाल ) देनेपर ( हरा रंग होनेके कारण पत्तलके भ्रमसे ) अत्यन्त क्रुद्ध हुए बरातियोंको 'आपलोगों के लिए दिया गया यह भोजनपात्र ( थाल) पलाश आदि (या-सागौन ) के पत्तोंसे नहीं बना ( अथवा-बथुआ, पालक आदिके शाकसे नहीं भरा हुआ ) है; किन्तु हरी कान्तिसे यह भोजनपात्र ऐसा (पत्तोंसे बनाया, शाकसे भरा हुआ प्रतीत होनेवाला) हरे रंगका है। इस प्रकार (कन्यापक्षवालोंने ) समझाया / / 66 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy