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________________ षोडशः सर्गः। 181 परावर्तितमित्यर्थः, तदेव अकार्यकरणचतुर्निवारणरूपद्वयमेव, तदीयस्य बालासम्ब. न्धिनः, हृदः हृदयस्य, अखिलां समग्रां, वात्ता वृत्तान्तं, खले धूर्ते, इङ्गितदर्शनादभिः प्रायज्ञानचतुरे इति यावत् , कामुके विषये, जगाद खलु तस्मै निःसंशयम् उवाच इत्यर्थः, अकर्त्तव्यकरणरूपेङ्गितेन बायाया अन्यासक्तचित्तता, दर्शनप्रवृत्तचतुःपराव. र्तनेङ्गितेन तस्या लजायाः प्रकाशनात् धूर्तो 'मयि आसक्ता लज्जिता चेयमिति विवेद इति भावः॥५७ // कर्तव्य ( परोसने आदिका कार्य ) को छोड़नेवाली बालाने जो व्यापारान्तर किया तथा दर्शनेच्छुक नेत्रको जो फेर लिया अर्थात् देखनेकी इच्छा होनेपर भी जो नहीं देखा, वही ( उस बालाका व्यापारान्तर करना तथा नेत्रको फेर लेना ही ) धूर्त (अपने आशयको समझनेमें चतुर ) कामुकमें उस (बाला) के हृदयकी बातको बतला दिया अर्थात् उस बालाके उक्त दोनों कार्योंसे धूर्त कामुकने उसके हृद्गत अपने में अनुरागको समझ लिया। [ पाठा०वही कामुकमें 'बतला दिया, क्योंकि वह खल अर्थात् दुष्ट था, लोकमें भी जो खल होता है, वह दूसरेके हृदयकी बातको दूसरेसे कह देता है। प्रकृतमें उस बालाके वे दोनों कार्य खल ( दुष्ट = बुरे ) थे, अत एव उन्होंने उस बालाके हृदयकी बातको उस कामुकसे बतला दिया, ऐसा मैं मानता हूं ] // 57 // जलं ददत्याः कलितानतेमुखं व्यवस्यता साहसिकेन चुम्बितुम् / पदे पतद्वारिणि मन्दपाणिना प्रतीक्षितोऽन्येक्षणवञ्चनक्षणः / / 58 / / जलमिति / जलं ददत्या आवर्जयन्स्याः , अत एव कलिता कृता इत्यर्थः, आनतिः उर्ध्वदेहस्य अवनमनं यया तादृश्याः जलदानार्थ न्युब्जीकृतशरीराया , इत्यर्थः, कस्याश्चित् स्त्रिया इति शेषः, मुर्ख चुम्बितुं व्यवस्यता उद्युञानेन, व्यवस्यतेलटः शत्रादेशः / अत एव मन्दपाणिना जलग्रहणे श्लथहस्तेन, सहसा बलात्कारेण वर्तते यः स तेन, अथवा-सहसा अविवेचनेन कृतं यत् तत् साहसं, तत्र प्रवृत्तः साह. सिका तेन साहसिकेन अविमृश्यकारिणा इत्यर्थः / 'ओजःसहोऽम्भसा वर्तते' इति ठक / केनचित् कामुकेनेति शेषः, पदे स्वीयचरणे, पतत् श्लथहस्तात् विगलत् , वारि यस्मिन् तस्मिन् सति, चुम्बनौत्सुक्यात् स्वीयचरणोपरिशिथिलहस्तात् जले विगलति सतीत्यर्थः, अन्येक्षणवञ्चनक्षगः परदृष्टिवञ्चनसमयः, तत्रत्यजनान्तराणां विषयान्तरे दृष्टिप्रेरणावसरः इत्यर्थः, प्रतीक्षितः अपेक्षितः इत्यर्थः; कामान्धाः किं न कुर्वन्तीति भावः // 58 // ___ पीने ( या-पैर धोने ) के लिए पानी देती हुई ( अत एव ) झुकी हुई (किसी स्त्री) के मुखको चूमने के लिए तत्पर ( इसी कारण जल लेने में ) हाथको शिथिल ( पानी पीने के पक्षमें अङ्गुलियोको विरल = छिद्रयुक्त ) किये हुए किसी साहसिक ( बलात्कारपूर्वक याअविवेकपूर्वक चुम्बन करनेवाले कामान्ध पुरुष ) ने पैरपर पानी गिरते रहनेपर दूसरोंसे नहीं देखनेके अवसरकी प्रतीक्षा करने लगा। (पैर धोनेके पक्षमें-पानी गिरते हुए पैरपर
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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