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________________ 656 नैषधमहाकाव्यम् / ... सनिझरः शाणनधौतधारया समूढसन्ध्यः क्षतशत्रुजामृजा // 20 // - उवाहेति / सान्द्रतराः शुष्कत्वादतिशयेन घना इत्यर्थः, अङ्काः कृष्णवर्णरक्तचि. हानि एव, काननानि अरण्यस्वरूपाणि यस्य सः, खड्गलग्नशुष्करक्तचिह्नानां कृष्णत्वात् तत्रकाननत्वारोपणमिति बोध्यम् , शाणनेन उत्तेजनेन; शाणघर्षणेनेत्यर्थः, धौतया उज्ज्वलीकृतया, धारया निशितमुखेन, सनिर्झरः सप्रवाहः, निर्झरयुक्तवत् परिदृश्यमान इत्यर्थः, क्षतेभ्यः प्रहृतेभ्यः, शत्रुभ्यः, जातं निर्गतं, तादृशेन असृजा रक्तेन, कृपाणलग्नेनेति भावः / समूढा वृता, प्रकटिता इत्यर्थः, सन्ध्या प्रातःसन्ध्याकालिकशोभा इत्यर्थः, येन सः तादृशः, सन्ध्याकालीनाकाशस्य रक्तवर्णत्वादिति भावः, यः कृपाणः, स्वशीयमेव शत्रुहननरूपं शूरत्वमेव सूर्यः तस्य उदयपर्वतः उदयाचलः, तस्य व्रतं नियम, नित्यसूर्योदयकारित्वरूपमित्यर्थः, नित्यमेव शत्रुदमनेन स्वपराक्रमप्रकाशरूपवतमिति समुदितार्थः, उवाह वहति स्म / खड्गस्याङ्का. दिषु काननत्वाधारोपणाद्पकालङ्कारः॥२०॥ सघन शरीर-(सूखनेसे कालो पड़ी हुई रक्तरेखा ) रूप वनवाला (अथवा-सूक्ष्म मुद्गपत्त्रीलतारूप शरीरका जीवनभूत अर्थात् जीवित रखनेवाला; पक्षा०-शरोरमें सघन वनोंवाला), शाणपर घिसनेके कारण स्वच्छ धारसे झरनेके समान (चमकता हुआ, पक्षा-झरनोंसे युक्त ), कटे हुए शत्रुसे उत्पन्न (बह कर निकले हुए ) रक्तसे सन्ध्या ( सायंकालकी लालिमा ) को प्राप्त हुआ ( अथवा-कटे हुए शत्रुसे उत्पन्न रक्तसे मूठतक प्राप्त हुआ अर्थात् शत्रुके शरीरमें . मूठतक घुसा हुआ, पक्षा०-सन्ध्याकालको प्राप्त ) जो खग अपने पराक्रमरूपी सूर्यके उदयाचल व्रतको ग्रहण करता है; ( उस खड्गको राजा भीमने नलके लिए दिया)। [ जिस प्रकार घने वनोंवाला, स्वच्छ निर्झरोंसे युक्त, सन्ध्यारुण उदयाचल नित्य ही सूर्योदय के नियमको धारण करता हैं, उसी प्रकार सूखी हुई रक्तकी धारारूप वनवाला, शाण चढ़ानेसे स्वच्छ होकर चमकता हुआ और आहत शत्रु शरीरोत्पन्न रक्तसे सन्ध्यावत् अरुणवर्ण वह खड्ग सर्वदा अपने पराक्रमरूपी सूर्योदयके नियमको धारण करता अर्थात् सदा अपने पराक्रमको दिखलाता है ] // 20 // यमेन जिह्वा प्रहितेव या निजा तमात्मजां याचितुमर्थिना भृशम् / स तां ददेऽस्मै परिवारशोभिनीं करग्रहार्हामसिपुत्रिकामपि / / 2 / / यमेनेति / भृशमत्यर्थम् , अर्थिना याचकेन, यमेन अन्तकेन, तं भीमम् , आत्मजां भैमी, याचितुं प्रार्थयितुं, निजा जिह्वा नियतप्राणनाशकत्वाद्यमरसना इव स्थिता, इत्युत्प्रेक्षा, या असिपुत्रिका, प्रहिता भीमप्रीत्यर्थं दूतीप्रेरणसमये प्रेषिता, परिवारेण कोशेन परिजनेन च 'परिवारः परिजने खड्गकोशे परिच्छदें' इति विश्वः / 1. 'शाणनिधौतधारया' इति पाठः / 'शाणन-' इति पाठश्चिन्त्य इति 'सुखावबोधा' इति म० म० शिवदत्तशर्माणःः।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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