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________________ 722 नैषधमहाकाव्यम् / भ्रश्यन्ति, भुजाभ्यः यानि कम्बूनि शङ्खवलयानि, 'शङ्खः स्यात् कम्बुरस्त्रियाम्' इत्यमरः, तान्येव मृणालानि तानि हरतीति तद्धारिणी सती द्विषद्गणस्य तदीयारिवर्गस्य, स्त्रैणे स्त्रीसम्बन्धिनि, गम्बुनिझरे नेत्रजलप्रवाहे, खेलति क्रीडति / 'स्त्रीणां पुंसाञ्च यत्किञ्चित् स्त्रैणं पौंस्नमिति क्रमात्' इति कोषः। 'स्त्रीपुंसाभ्यां नस्नी भवनात्' इति नङ् / रूपकालङ्कारः // 35 // ___ इस ( काञ्चीनरेश ) के युद्धके संमुख आये हुए वीरोंकी स्त्रियों के समूहके ( पतियों के मारे जानेसे विधवा होनेके कारण) टूटते हुए भुजाओंके शजवलयरूप मृणाल को हरण ( नष्ट-दूर ) करनेवाली इस राजाकी कीर्तिरूपी मरालपति शत्रुसमूहके स्त्रीसमुदायके आँसुओंके ( या आँसूरूपी) झरने में कीड़ा करती है। [ जिस प्रकार हंसपङ्क्ति मृणालको खाकर नष्ट तथा झरनेमें क्रीड़ा करती है, उसी प्रकार इस राजाकी कीर्ति युद्ध में शत्रुओंको मारकर उनकी विधवा स्त्रियोंको बाहुभूषण-शङ्खवलयको नष्ट (दूर ) करती तथा उन्हें रुलाकर आँसुओंका निरन्तरप्रवाह झरनेके समान बवाती है, यह राजा महायशस्वी है, अत एव इसका वरण करो] // 35 // सिन्दूरद्युतिमुग्धवृद्धान वृतस्कन्धावधिश्यामिक व्योमान्तःस्पृशि सिन्धुरेऽस्य समरारम्भोद्धरे धावति | जानीमोऽनु यदि प्रदोपतिमिरव्यामिश्रसन्ध्याधियेवास्तं यान्ति समस्त बाहुजमुजातेजःसहस्रांशवः // 36 // सिन्दुरेति / सिन्दूरं 'सिन्दूरं नागसम्भवम्' इत्यमरः। तस्य धुतिभिः मुग्धमूर्धनि सुन्दरमस्तके, धृता स्कन्धोऽवधिः यस्याः सा श्यामिका येन तस्मिन् , स्कन्धपर्यन्तश्यामले तत उपरि सिन्दूरारुणे इत्यर्थः, व्योमान्तःस्पृशि उच्चतया अभ्रङ्कषे, अस्य काञ्चीपतेः, सिन्धुरे गजे, समरारम्भेषु उधुरे निर्भरे, अनर्गले इत्यर्थः, 'ऋकपूरब्धः-' इत्यादिना समासान्तः, धावति अभिमुखागते सति, अनु अनन्तरं, समस्तबाहुजानां समस्तक्षत्रियाणां, भुजातेजांसि भुजप्रतापा एव, सहस्रांशवः सूर्याः, प्रदोषतिमिरेण सह व्यामिश्रसन्ध्यायाः मिलितसन्ध्यायाः, धिया बुद्धया एव, भ्रान्त्या एव इत्यर्थः, अस्तं यान्ति इति जानीमः यदि, यदि शब्दः सम्भावनायां, श्यामारुणसिन्धुरे तिमिरमिश्रसन्ध्याभ्रान्त्यैव ते अस्तं यान्ति इति सम्भावयामः किम् ? इति उत्प्रेक्षालङ्कारः // 36 // सिन्दूर की ( पक्षा०-सिन्दूरके समान, अरुण वर्ण) कान्तिसे मनोहर मस्तकवाले, स्कन्धतक काले वर्णवाले और आकाशस्पर्शी अर्थात् अत्यन्तविशालकाय, इस ( 'काञ्ची' नरेश ) के समरके प्रारम्भमें तत्पर ( या निर्भय ) हाथीके दौड़ते रहने पर यदि सम्पूर्ण क्षत्रियोंके बाहु ( से उत्पन्न ) तेजोरूप सूर्य अस्त अर्थात् नष्ट होते ( पक्षा०-अस्ताचलको जाते ) हैं तो हम जानते हैं कि वे सायङ्कालके अन्धकारसे युक्त सन्ध्याके भ्रमसे अस्त (नष्ट )
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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