SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदशः सर्गः। 136 दमयन्तीरूपयोः दम्पत्योः 'दम्पती जम्पती जायापती' इत्यमरः / जायाशब्दस्य दम्भावो जम्भावश्च निपातितः / गाढः बद्धमलः, रागःप्रेम, तस्य रचनात् सम्पादनात् प्राकर्षि प्रकृष्टया जातम् इत्यर्थः। परस्परानुरागोत्पादनक्रीडाया उत्कर्षः एतयोर्नल. भैम्योरेव विश्रान्त इति भावः कृषेर्भावे लुङ॥ 8 // __ स्त्री-पुरुषोंको विशेषरूपसे अत्यन्त (सर्वदा) मिलाते हुए प्रजापति ( ब्रह्मा ) का अभ्यास इन दोनोंको दम्पती बनानेकी श्रेष्ठता के लिए परिपक्व हो गया है क्या ? ( अथवा....... प्रजापतिका परिपक्व अभ्यास अर्थात् निरन्तर कार्य करते रहनेसे अच्छी तरह अभ्यस्त शिक्षण ) इन दोनों को दम्पती बनाने के लिए उत्कृष्ट हुआ है क्या ? / तथा कामदेवकी संसारके प्रारम्भसे स्त्री-पुरुष के लिए परस्पर प्रेमदान (अनुरागोत्पादन ) रूप क्रीडा भी इन दोनों दम्पती ( नल-दमयन्तीरूप स्त्री-पुरुष ) के परस्पर प्रेमरचनाको बढ़ा दिया है। [ क्योंकि बिना सतत अभ्यास किये ब्रह्मा इतनी सुन्दर स्त्री-पुरुषकी जोड़ी बनानेमें कदापि समर्थ नहीं होते. अतएव मालूम पड़ता है कि जिस प्रकार सतत कार्य करता हुआ व्यक्ति अभ्यासके परिपक्व होनेपर सर्वोत्तम कार्य करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार ब्रह्मा भी स्त्री-पुरुषों की जोड़ियोंको सर्वदा मिलाते रहनेसे उस कार्यमें निपुणता पाकर इन दोनोंकी प्रशस्त जोड़ी बनाने में समर्थ हुए हैं / इसी प्रकार कामदेव भी जो सृष्टिके आरम्भ कालसे स्त्री-पुरुषों में परस्परमें अनुराग पैदा करनेकी क्रीडा करता है, वही निरन्तरकृत अभ्यास इन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) के परस्पर अनुरागको बढ़ानेमें समर्थ हुआ है / इन दोनों को श्रेष्ठतम दाम्पत्य एवं परस्परानुरागका उदाहरण सृष्टिके आरम्भसे एक भी नहीं है ] // 88 // ताभिदृश्यत एष यान् पथि महाज्यैष्ठीमहे मन्महे यद्दग्भिः पुरुपोत्तमः परिचितः प्राग मञ्चमश्चन् कृतः / सा स्त्रीराट् पतथालुभिः शितिसितैः स्यादस्य हक्चामरैः सस्ने माघमघाभिघातियमुनागङ्गौघयोगे यया // 86 ताभिरिति / ताभिः स्त्रीभिः, पथि राजपथे, यान् गच्छन् , यातेलंटः शनादेशः। एष नलः, दृश्यतेः, यासां दृग्भिः नेत्रः, प्राक् पूर्वस्मिन् जन्मनि, ज्येष्ठया नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी, ज्यैष्ठी 'नक्षत्रेण युक्तः कालः' इति डोप / महती पूज्या, ज्येष्ठी ज्येष्टपौर्णमासी, तस्यां यो महः उत्सवः तस्मिन् , मञ्चं पर्यङ्कम, अञ्चन् गच्छन् मञ्चस्थ इत्यर्थः, 'मञ्चपर्यङ्कपल्यङ्काः खटवया समाः' इत्यमरः, पुरुषोत्तमः नारायणः, परिचितः दृष्टः कृतः, नेत्रैः उपासितः इत्यर्थः, ताहक सुकृतं विना कथमीहङमहाभागदर्शनं लभ्यते इति भावः यथाऽऽहुः, दोलारूढञ्च गोविन्दं मञ्चस्थं मधुसूदनम् / रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते // इति / तथा पतयालुभिः उपरिपातुकैः 'स्पृहिगृहिपति-' इत्यादिना चौरादिकात् पतेरालुचि 'अयामन्तालु-' इत्यादिना गेरयादेशः। शितिभिः श्यामवर्णैः, तथा सितैः शुभ्रश्च, अस्य नलस्य, 59 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy