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________________ 720 नैषधमहाकाव्यम् / सरस्वत्यास्तद्वर्णननिषेधार्थ भैम्याः स्वमुखेऽङ्गुलिदानं तद्गुणाद्भुतादिवेति उत्प्रेक्षितं लोकैरिति भावः / अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः॥३१॥ इस ( सरस्वतीके ऐसा ( 11 / 24-30 ) वर्णन करने ) के बाद मानो उस ( महेन्द्राधिपति ) रानाके गुणसे उत्पन्न आश्चर्यसे अपने मुखरूपी कमलपर अङ्गुलिरूपी कमलनाल स्थापित की हुई तथा चातुर्यपूर्ण चेष्टावाली उस दमयन्ती ने 'मुख बन्द कर लो' ऐसा उस सरस्वती देवीसे कहा। [ लोकमें भो आश्चर्यित या किसीको चुप रहने के लिए सङ्केत करनेवाला व्यक्ति मुखपर अङ्गुलि रखता है, अत एव दमयन्तीका वैसा करना सरस्वतीके लिए 'बहुत गुणवाले इस राजाके गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता, अतः चुप रहो' ऐसा सङ्केत हुआ तथा दर्शकों के लिए इस राजाके अधिक गुणोंसे दमयन्तीका आश्चर्यित होना सुचित हुआ। कमलमें नालका होना उचित ही है। उक्त सङ्केतसे सरवस्ती देवीको चुप होनेका सङ्केत कर दमयन्तीने उस महेन्द्र के राजामें अपनी अरुचि प्रकट की ] // 31 // अनन्तरं तामवदन्नृपान्तरं तदध्वहक्तारतरङ्गारिङ्गणा / तृणीभवत्पुष्पशरं सरस्वती स्वतीव्रतेजःपरिभूतभूतलम् / / 32 / / अनन्तरमिति / अनन्तरं तद्वर्णननिषेधावगत्यनन्तरं सरस्वती तस्य नृपान्तरस्य अध्वनि दिशि, दृशोः तारतरङ्गरिङ्गणा नयनव्यापारप्रौढोमिरचना यस्याः सा सती, नृपान्तरं दृशा निर्दिशन्तीत्यर्थः, तां दमयन्तीं तृणीभवन् पुष्पशरो यस्य तं तृणीकृत. मन्मथं, स्वस्य तीव्रण तेजसा परिभूतं भूतलं येन तं, नृपान्तरम् अन्यं नृपं लक्षीकृत्य इति शेषः, अवदत् / अविसमानार्थकत्वात् द्विकर्मकत्वम् // 32 // इस ( मन्दरस्वामीमें दमयन्ती के अनिच्छा प्रकट करने ) के बाद उस (दूसरे राजा) की ओर नेत्रसे सङ्केत करती हुई सरस्वती ( शरीर-शोभासे ) तृण ( के समान अतिशय हीन ) होते हुए कामदेववाले तथा अपने तीव्र तेजसे भूतलको तिरस्कृत किये हुए दूसरे राजाको लक्षितकर उस ( दमयन्ती ) से बोली / / 32 / / ___ तदेव किन्नु क्रियते न ? का क्षतिः ? यदेष तद्रूतमुखेन काङ्क्षति | प्रसीद काञ्चीमयमाच्छिनत्तु ते प्रसह्य काञ्चीपुरभूपुरन्दरः / / 33 / / तदिति हे भैमि ! एष काञ्चीपुरभूपुरन्दरः काञ्चीनगरालङ्कृतदेशाधीश्वरः, तस्य त्वां प्रति प्रेषितस्य, दूतस्य मखेन यत् त्वद्वरणादिकं, काति, तत् काक्षित. मेव, किं नु कथं, न क्रियते ? त्वयेति शेषः, अपि तु कर्त्तव्यमेव तदित्यर्थः, का क्षतिः ? तत्करणे तव का हानिः ? प्रत्युत श्रेय एवेति भावः; अथ तत्कालिनतमेव विज्ञापयति, अयं काञ्चीपतिः, ते नवसङ्गमे लज्जितायाः तव इति भावः, काञ्ची वसनबन्धदाया) ईबद्धा मेखला, प्रसह्य बलात् , आच्छिनत्तु आच्छिद्य गृह्णातु, 1. 'किन्न क्रियते नु' इति पा० /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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