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________________ पञ्चदशः सर्गः। 107 उद्धारषणं कर्म तयोः मृगचक्षुषोः, अदूरवर्तिक्षतता निकटवर्तिक्षतत्वं की, शंसति स्म शशंस / मृगस्य ईक्षणसमीपस्थस्वाभाविकक्षताकारचिह्ने पूर्वोक्तापराधप्रयुक्तविधिनखोत्पाटनक्षतत्वमुत्प्रेक्ष्यते // 37 // ब्रह्माने दमयन्ती के नेत्रद्वय ( मृगनेत्रोंसे अत्यधिक सुन्दर दोनों नेत्रों ) की उस ( नेत्रप्रसाधनके ) समय में समानता करनेके अपराधसे कृष्णसार मृगके दोनों नेत्रोंको नख गड़ाकर जो निकालना चाहा, वह ब्रह्माकी इच्छा ही ( उस मृगके) उन दोनों नेत्रों के पासमे क्षतभाव ( काले चिह्न ) को बतलाती थी। [ दमयन्ती के नेत्रोंमें अञ्जन लगाते समय उनके साथ अतितुच्छ अपने नेत्रोंको समानता करते हुए कृष्णसार मृगने बड़ा भारी अपराध किया है, अत एव उसे दण्डित करने के लिए ब्रह्माने उसके नेत्रोंको अङ्गुलिके नख गड़ाकर निकालना चाहा, उस निकालने के कार्यको ही उन नेत्रों के समीपमें उत्पन्न क्षतका काला चिह्न कहता था / अत्युत्तम दमयन्तीनेत्रद्वय के साथ तुच्छतम कृष्णसारनेत्रद्वयकी समानता करना महान् अपराध था, अतः ब्रह्माका उसके नेत्रोंको अंगुलिसे निकालकर उसे दण्डित करने की इच्छा करना उचित ही है // कृष्णसार मृग के नेत्रों से दमयन्ती के नेत्र अत्यधिक सुन्दर थे] // 37 // विलोचनाभ्यामतिमात्रपीडितेऽवतंसनीलाम्बुरुहद्वयों खलु / तयोः प्रतिद्वन्द्विधियाऽधिरोपयाम्बभूवतुर्भीमसुनाश्रुती ततः // 38 / / विलोचनाभ्यामिति / भीमसुताश्रुती भैमीश्रोत्रद्वयं, विलोचनाभ्याम् अतिमात्रं पीडिते आकर्णविस्तारितया अत्यन्तमाक्रान्ते सत्यौ, ततः स्वपोडनरूपकारणात् , अवतंसनीलाम्बुरुहद्वयीं कर्णभूषणीकृतनीलोत्पलयुगलं, तयोः विलोचनयोः, प्रतिद्वनिद्वधिया प्रतिपक्षबुद्ध्या, अधिरोपयाम्बभूवतुः आरोपयामासतुः खलु इत्युत्प्रेक्षा, बलिना पीडितस्तुल्यबलं तत्प्रतिपक्षमाश्रयते इति भावः // 30 // दमयन्ती के कर्णद्वय (कर्णपर्यन्त विस्तृत अर्थात् विशाल ) नेत्रदयसे अत्यन्त पौडिन होकर कर्णभूषणरूप नीलकमलद्वयको उस नेत्रद्वयके प्रतिद्वन्दी ( समान बलवाले ) होनेकी भावनासे स्थापित किया ( रक्खा)। [लोकमें भी प्रबल व्यक्तिसे अतिशय पीडित व्यक्ति उस प्रबल व्यक्तिके प्रतिस्पर्धी समान बलवाले दूसरे व्यक्तिको अपने समीपमें स्थापित करता ( रखता ) है / नीलकमलद्वयके कर्णशोभोत्पादनरूप कार्यको नेत्रद्वयने ही सम्पादित कर दिया था ( कान तक विशाल नेत्रोंसे ही वे कान शोभित होते थे), अत एव कर्णभूषण बने हुए नीलकमलों ने अधिक कुछ नहीं किया // नीलकमलको कर्णभूषण बनाकर दमयन्तीके कानों में सखियोंने पहना दिया / / 38 // धृतं वतंसोत्पलयुग्ममेतया व्यराजदस्यां पतिते हशाविव | मनोभुवाऽऽन्ध्यं गमितस्य पश्यतः स्थिते लगित्वा रसिकस्य कस्यचित्।। धृतमिति / एतया भैम्या, घृतं वतंसोत्पलयुग्मं कर्णभूषणीकृतनीलोत्पलद्वयम् , 57 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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