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________________ 718 नैषधमहाकाव्यम् / पर्वतकी गुफाओंमें दिनको बितानेवाली, सायंकाल के बाद बाहर निकलती हुई इस राजासे डरे हुए शत्रुकी स्त्रीसे अपने क्रीडा हंस ( खिलौना हंस ) के भ्रमसे हठी बालकने आकाशोदित चन्द्रमाको बार बार मांगा, ( यह देख दुःखसे ) वह बहुत रोया और उस स्त्रीको आँसमें प्रतिबिम्बित चन्द्ररूप हंसके प्रतिबिम्बको पानेसे प्रसन्न होते हुए बालकके हंसनेसे ( वह स्त्री ) प्रसन्न हुई और ( अपनीविवशतामय दुःखसे ) लम्वा श्वास लिया / [इस राजासे डरे हुए शत्रुकी स्त्री दिनमें पर्वतकी गुफामें छिपी रहती थी और रातमें बाहर निकली तो उसके बालकने आकाशमें उदित चन्द्रको हंसरूप खिलौना समझकर 'मेरा खिलौना हंस दो' इस प्रकार हठ करने लगा और उसे किसी प्रकार शान्त नहीं कर सकनेके कारण वह स्त्री बहुत रोयी, किन्तु उसकी आँसुओंकी बूंदों में प्रतिबिम्बित चन्द्रको समीपमें देखकर 'यह मेरा खिलौना हंस ही है' ऐसा समझकर प्रसन्न होता हुआ बालक हँसने लगा, उसे देख किसी प्रकार इस दुराग्रही बालकसे छुटकारा पानेसे वह हँसी और छोड़ी गई पूर्व सम्पत्तिके स्मरण आनेसे 'तुम्हारा खिलौना हंस यहां कहां ? व्यर्थमें भ्रान्त हो गये हो' ऐसा विचार आनेपर उसने लम्बा श्वास लिया ] / / 28 / / अस्मिन् दिग्विजयोद्यते पतिरयं मे स्तादिति ध्यायति कम्पं सात्त्विकभावमञ्चति रिपुक्षोणीन्द्रदारा धरा / अस्यैवाभिमुखं निपत्य समरे यास्यद्भिरुचं निजः पन्था भास्वति दृश्यते बिलमयः प्रत्यर्थिभिः पार्थिवैः / / 26 / / अस्मिन्निति / अस्मिन् महेन्द्रनाथे, दिग्विजयोद्यते सति, रिपुक्षोणीन्द्राणां दाराः कलत्रभूताः, धरा अयं महेन्द्रनाथ एव, मे मम, पतिः स्तात् अस्तु, अस्तेर्लोटि 'तुह्यो स्तात' इति तुस्थाने तातडादेशः 'श्नसोरल्लोपः' इति अकारलोपः, इति ध्यायति सङ्कल्पयति, कम्पं कम्पाख्यं सात्त्विकभावम् , अञ्चति प्राप्नोति, औलानिके भूकम्पे सात्विकोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्या; किञ्चास्यैव समरे अभिमुर नित्य आगत्य, ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वलोकं, यास्यद्भिः प्रत्यर्थिभिः पार्थिवैः आस्वति सूर्यमाडले, बिलमयः छिद्ररूपः, निजः पन्था दृश्यते; आसन्नमृत्योः आदित्यमण्डलं सच्छिद्रमिव दृश्यते इत्यागमः। अत्र आत्मीयोर्ध्वगमनमागंत्योत्प्रेक्षा पूर्ववत् गम्या / 'द्वाविमो पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनी। परिबाड योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः // ' इति // 29 // इस ( महेन्द्रनाथ ) के दिग्विजयके लिए तैयार होने पर 'यह मेरा स्वामी हो' ऐसा ध्यान करती हुई शत्रु राजाकी स्त्री ( वशीभूता) पृथ्वी कम्परूप सात्त्विक भाव (पक्षा०दूसरे स्वामी होनेका सूचक भूकम्प ) को प्राप्त करती है (दूसरे नवीन पतिको चाहनेवाली स्त्रीमें कम्परूप सात्त्विक भाव ( पक्षा०–राजपरिवर्तनादि उत्पातसूचक भूकम्प ) होना शास्त्रों में वर्णित है ) युद्ध में इसीके ( अथवा-इसीके युद्ध में ) सामने गिर (मर ) कर ऊपर ( स्वर्गलोक ) को जाते हुए शत्रु राजा लोग सूर्यमें बिलरूप अपना ( अपने जानेका ) मार्ग
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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