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________________ पञ्चदशः सर्गः। 905 सम्भवाः जाताः, भ्रमी भ्रमं विभ्रतीति भ्रमीभृतः भ्रमन्त्यः, कजलस्य धूमः कज्जलोत्पादकधूमः, तस्य वल्लयः लताः इव, श्रेण्य इवेत्यर्थ इत्युस्प्रेक्षा, बभुस्तमाम अतिशयेन बभुः 'तिङश्च' इति तमप्प्रत्यये 'किमेत्तिङव्ययघात्-'इत्यनेनामुप्रत्ययः। ललाटभूषणके पासमें भीमनरेन्द्रनन्दिनी ( दमयन्ती) के कुण्डलाकृति टेढ़े-मेढ़े केश मैनसिलसे रचित तिलकरूपी दीपकसे उत्पन्न टेढ़े-टेढ़े काली धूमलताके समान शोभते थे। [दीपकके लौका धुंआं काला एवं टेढ़ा होता है, अतएव यहां मैनसिलके तिलकको दीपक तथा ललाटभूषणके समीपस्थ कुटिल कृष्णवर्ण बालोंको उक्त दीपकके लौ (ज्वाला) की धूम्रश्रेणि कहा गया है। मैनसिलको पीलावर्णवाला तथा नलका कामोद्दीपक होनेसे यहां दीपक माना गया है और उस दीपकसे टेढ़ी एवं काली धूम्रश्रेणिका निकलना उचित ही है] // अपाङ्गमालिङ्गय तदीयमुच्चकैरदीपि रेखा जनिताऽञ्जनेन या / अपाति सूत्रं तदिव द्वितीयया वयःश्रिया वर्द्धयितुं विलोचने / / 34 // अपाङ्गमिति / अञ्जनेन जनिता या रेखा तदीयं दमयन्तीयम् , अपाङ्गं नेत्रप्रान्तम् , आलिङ्गय स्पृष्ट्वा, उच्चकैर्नितरात् , अदीपि आयतत्वात् नेत्रावहिः अपाङ्गपर्यन्तं प्रसारिता सती रराज, तत् सा रेखेत्यर्थः / विधेयसूत्रापेक्षया नपुंसकनिर्देशः, अथवा तत् रेखारूपमञ्जनमित्यर्थः / द्वितीयया वयःश्रिया यौवनसम्पदा का, विलोचने वर्द्धयितुं बाल्यकालापेक्षया दीर्धीकर्तुं, सूत्रम् अपातीव पातितमिव इत्युत्प्रेक्षा पततेय॑न्तात् कर्मणि लुङ् , एतावत् मे क्षेत्रमिति निश्चित्य पातितं सीमासूत्रमिव सा अञ्जनरेखा विरराजेत्यर्थः // 34 // ___ अञ्जनसे बनायी गयी जो रेखा उस ( दमयन्ती) के अपाङ्ग ( नेत्रप्रान्त ) का स्पर्शकर अत्यन्त शोभित हुई, द्वितोय ( यौवन ) अवस्थाकी शोमाने नेत्रोंको बढ़ाने के लिए वहो सूत्रपात किया हो ऐसा जान पड़ता था। [जिस प्रकार कोई कारीगर किसी स्थानको बढ़ाने के लिए पहले नायके सूत्रसे मापकर सीमा निश्चित करता है, उसी प्रकार दमयन्तोके नेत्रप्रान्ततक फैली हुई कृष्णवर्ण अञ्जनरेखा 'यौवनावस्थारूपी कारोगरने नेत्रोंको बढ़ाने के लिए नापने का सूत गिराया हो' ऐसा जान पड़ती थी। यद्यपि नेत्र बचपनको अपेक्षा युवावस्थामें बढ़ते नहीं हैं, तथापि कटाक्ष-विक्षेपादि विलाससंयुक्त होनेसे उनके बढ़नेको यहां कल्पना की गयी है ] // 34 // अनङ्गलीलाभिरपाङ्गधाविनः कनीनिकानीलमणेः पुनः पुनः / तमिस्त्रवंशप्रभवेण रश्मिना स्वपद्धतिः सा किमरञ्जि नाञ्जनैः ? // 32 // अनङ्गति। अनङ्गलीलाभिः कटाक्षातरूपस्मरविलासैः हेतुभिः, पुनः पुनः अपाङ्गधाविनः नेत्रान्तगामिनः, कनीनिका तारका, सा एव नीलमणिः इन्द्रनीलो. पलः तस्य सम्बन्धि, तमित्रवंशप्रभवेण तमःकुलसम्भवेन, असितेनेत्यर्थः, रश्मिना
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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