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________________ चतुर्दशः सर्गः। 851 वक्रोक्ति आदिसे परिपूर्ण ज्ञानको करने के लिए मैं प्रतिदिन प्रयत्नशील रहूंगी // इस पद्यसे कविकुलशिरोमणि ग्रन्थकार 'श्रीहर्ष' महाकविने यहां पर अपनी रचना को प्रसादादि गुणयुक्त, रोतियों से प्रसिद्ध, शृङ्गारादि रसाप्लावित, मुख्यतः 'वैदी' रीतियुक्त श्लेष वक्रोक्ति आदि ज्ञान की आधारभूत रचना करने में साक्षात् सरस्वतीदेवीने सहायताकी है यह सूचित किया है ] // 88 // भववृत्तस्तोतुर्मदुपहितकण्ठस्य कवितुमुखात् पुण्यैः श्ला कैस्त्वयि घनमुदेयं जनमुदे / ततः पुण्यश्लोकः क्षितिभुवनलोकस्य भविता भवानाख्यातः सन् कलिकलुषहारी हरिरिव / / 89 / / भवदिति / किञ्च, हे नल ! मया उपहितकण्ठस्य, अधिष्ठितकण्ठनालस्य, भवतः वृत्तस्य चरित्रस्य, स्तोतुः स्तावकस्य, कवितुः कः, मुखात् त्वयि विषये, पुण्यैः पवित्रैः चारुभिर्वा, 'पुण्यन्तु चार्वपि' इत्यमरः / श्लोकः पद्येः, जनमुदे लोकहर्षाय, घनं निरन्तरम, उदेयम्, उदेतव्यम्, उदीयतामित्यर्थः / एतेः 'अचो यत्' इति यत्प्रत्ययः / ततः को मे लाभः ? तबाह, तत इति / ततः पुण्यश्लोकोदयात् , भवान् पुण्यश्लोकः पुण्यकीर्तिः, इति आख्यातः कीर्तितः सन्, हरिः जनार्दनः इव, क्षिति. भुवनलोकस्य भूलोकस्य, कलिकलुषहारी कलिकालकल्मषनाशनः, भविता भविप्यति, भवतेलुटि 'शेषे प्रथमः' / अत्राहुः,-'पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः / पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // ' 'कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // ' इति // 89 // मुझसे अधिष्ठित कण्ठवाले ( जिसके कण्ठमें मैं ( सरस्वती देवी) वास करती हूं ऐसे ) तथा तुम्हारे चरित्र की स्तुति (प्रशंसा ) करनेके लिए कविता करनेवाले (कवि) के मुखसे त्वद्विषयक सुन्दर श्लोक लोगोंके हर्षके लिए अत्यन्त (या निरन्तर) उदित होवें, ( अथवालोगों के अत्यधिक हर्षके लिए उदित होवें) अर्थात् तुम्हारी प्रशंसाके सुन्दर श्लोक अत्यधिक लोगोंको हर्षप्रद हों और उस कारण ( अथवा-उसके बाद ) तुम कलिकालके पापको हरण करनेवाले विष्णुके समान ( अथवा-विष्णुके समान कलिकालके पापका हरण करनेवाले तुम ) भूतलनिवासी लोगोंके 'पुण्यश्लोक' ( पवित्र श्लोक या कीर्तिवाला) ऐसा प्रसिद्ध होवोगे / ( अथवा-'पुण्यश्लोक' ऐसा प्रसिद्ध तुम कलिकाल के पापहर्ता विष्णुके समान भूतलनिवासी लोगोंके होवोगे / अथवा-'पुण्यश्लोक' ऐसा प्रसिद्ध तुम विष्णुके समान भूतलनिवासी लोगोंके कलिकाल के पापनाशक होवोगे ) // 89 // देवी च ते च जगदुर्जगदुत्तमाङ्गरत्नाय ते कथय कं वितराम कामम् ? | किञ्चित्त्वया न हि पतिव्रतया दुरापं भस्मास्तु यस्तव बत व्रतलोपमिच्छुः।।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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