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________________ 866 नैषधमहाकाव्यम्। सम्बन्धि इव स्थितमित्यर्थः उत्प्रेक्षा, अत एव करे बद्धवासं कृतस्थिति, क रगतमित्यर्थः, पाशं बन्धनरज्जु स्वीयास्त्रञ्च, दधानः सन् अपां विकारम् आप्यम् अम्मयम् आप्यञ्चेति चान्द्रव्याकरणसूत्रात् साधुः, देहम् अवाप्य बभौ // 64 // सर्वसमर्थ प्रचेता ( प्रकृष्ट चित्तवाला अर्थात् वरुण ) ने उस समय (नल-वरण करनेपर) उस दमयन्तीमें ( पहले पाश द्वारा बांधे गये ) मनके बन्धनको खोले गये ( तथा अब ) हाथमें स्थित पाश ( अपने अस्त्रविशेष ) को धारण करते हुए जलमय शरीरको प्राप्तकर शोभने लगे / [ वरुणने हाथ में पाश लिए जब अपना जलमय शरीर धारण किया, तब वह पाश ऐसा मालूम पड़ता था कि पहले स्वयंवरमें दमयन्तीको पत्नीरूपमें पाने के लिए आते हुए वरुणने अपने मनको जिस पाशसे बांधकर दमयन्तीके विषयमें स्थिर किया था, अब नलके दमयन्ती द्वारा वरण किये जाने पर उसने दमयन्तीके विषयमें पहले पाशसे बंधे हुए (स्थिर ) मनको खोल लिया अर्थात् दमयन्तीसे मनको हटा लिया वही पाश उनके हाथमें दृष्टिगोचर हो रहा है। लोकमें भी जब कोई व्यक्ति किसी बछवे आदिके बन्धनको खोलता है तो उसके हाथमें वह रस्सी दृष्टिगोचर होती है। वरुणने भी हाथमें पाश लिये अपना जलमयरूप प्रकटकर लिया ] // 64 // सहद्वितीयः स्त्रियमभ्युपेयादेवं स दुर्बुध्य नयोपदेशम् / अन्यां समायः कथमृच्छतीति जलाधिपोऽभूदसहाय एव / / 65 / / सहेति / जलाधिपः अपां पतिः, लडयोरभेदात् जडाधिपः मूढाग्रगीश्च, स वरुणः, स्त्रियं कान्तामपि, द्वितीयेन केनचित् सहचरेण सह वर्त्तते इति सहद्वितीयः ससहायः, 'तेन सहेति तुल्ययोगे' इति बहुव्रीहिः / 'वोपसर्जनस्य' इति विकल्पान्न सहस्य सभावः, अभ्युपेयात् अभिगच्छेत् , एवं नयोपदेशं नीतिवाक्यं, सभार्यः सस्त्रीकः सन् , अन्यां स्यन्तरं कथम् ऋच्छति प्राप्नुयात् , इति एवं, दुर्बुध्य ससहायार्थ प्रयुक्तस्य सहद्वितीय इति शब्दस्य द्वितीयया भार्यया सह वर्त्तते इति सहद्वितीयः 'द्वितीया सहधर्मिणी / भार्या जाया' इत्यमरः, सभार्य इति विपरीत बुद्ध्वा, 'समासेऽनपूर्वे' इति क्त्वो ल्यबादेशः, असहायः एव अभूत्, अस्त्रीकः एव अभूदित्यर्थः, दमयन्तीलोभात् सर्वत्र ससहाय एवोपेयादिति नीतिमुल्लङ्घय स्वदारा. णामप्यनादरे सम्प्रति साऽपि दुर्लभेत्यहो! वरुणस्य दुर्बुद्धिरिति भावः // 65 // . जलाधिप अर्थात् वरुण (पक्षा०–'डलयोरभेदः' इस वचनसे जडाधिप अर्थात् महामूर्ख) 'सहायक अर्थात् दूसरे किसी व्यक्तिके साथ ( ही ) स्त्रीके पास जावे, (फिर दूसरेकी स्त्रीके विषयमें क्या कहना है ? )' इस नीतिवचनका 'स्त्रीसहित पुरुष दूसरी स्त्रीको किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं प्राप्त कर सकता' ऐसा प्रतिकूल अर्थ लगाकर असहाय ही हो गये / [ इन्द्रिय-समूह एकान्तमें स्त्रीके पास जानेसे विकृत हो सकता है,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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