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________________ चतुर्दशः सर्गः। 863 कश्यप ) की अनुकूलतासे ( अथवा-गोत्र अर्थात् जन्मकालीन राशिनामोंकी अनुकूलता ( तृतीय, एकादश, चतुर्थ और दशम आदि ज्योतिःशास्त्रोक्त श्रेष्ठभकूट होने से ) होनेवाले विवाह के लिए ( स्वर्गसे स्वयंवरसभामें ) आते हुए जिस श्रेष्ठ 'प्रवर' नामक मित्रको मानो गोत्र की प्रतिकूलतासे गोत्रशत्रु ( इन्द्र ) ने आगे किया (पक्षा०-सत्कार किया ); उस ('प्रवर' नामक इन्द्र-मित्र ) को उस दमयन्तीने देखा / [ 'जीवातु' व्याख्याकार 'मल्लिनाथ' का अभिमत है कि महाभारतादि ग्रन्थों में इन्द्र के 'प्रवर' नामक मित्रकी चर्चा नहीं आनेसे द्वितीय अर्थ ( इन्द्रके द्वारा 'प्रवर' नामक मित्रको अपना सहायक बनाकर आगे भेजना ) निराधार होनेसे चिन्त्य है / अत एव दूतकर्म करने के लिए इन्द्रादि देवोंने जो नलको आगे भेजा था, देवों के प्रसन्न होनेसे अपना अपना रूप धारण कर लेनेपर दमयन्तीने वास्तविक नल को देखा / द्वितीय अर्थमें-दमयन्ती तथा नलके अनुकूल गोत्र होनेसे नलके साथ गणना ठीक थी तथा दमयन्तीका मनुष्य एवं अपना देव गोत्र होनेसे परस्पर भिन्न गोत्र होने के कारण गोत्र शत्रु इन्द्रने मनुष्य गोत्रवाले 'प्रवर' नामक अपने मित्रको अपने विवाहमें बाधा उपस्थित करने के लिए जो आगे किया था, उस 'प्रवर' नामक श्रेष्ठको अब प्रकट होनेपर दमयन्तीका देखना उचित ही है / अथवा-दमयन्ती तथा नलके गोत्रकी अनुकूलता के कारण होनेवाले विवाहमें गोत्र शत्रु ( इन्द्र) ने 'प्रवर' को सहायक आगे किपा, क्योंकि समान 'प्रवर' होनेपर भी वधू-वरका विवाह नहीं होता / / वधू-वरके जन्मराशिके नामके प्रथमाक्षरके आधारपर गणना बननेपर ही विवाह योग्य होता है, यह ज्यौ तेषशास्त्रका सिद्धान्त है ] // 59 // स्वकामसम्मोहमहान्धकारनिर्वापमिच्छन्निव दीपिकाभिः। उद्गत्वरीभिश्छुरितं वितेने निजं वपुर्वायुसखः शिखाभिः // 60 / / स्वेति / अथ वायुसखः अग्निः, दीपिकाभिः दीपः, स्वः स्वीयः, कामेन सम्मोहः अज्ञानमेव, महान्धकारः तस्य निर्वापं प्रशान्तिम्, इच्छनिव उद्गत्वरीभिः उद्गमनशीलाभिः, 'गत्वरश्च' इति क्करबन्तो निपातः / शिखाभिः ज्वालाभिः, छुरितं व्याप्तं निजं वपुः वितेने प्रकाशयामास // 60 // __ अपने कामजन्य सम्मोहनरूप महान्धकारको दीपकोंसे शान्तिको चाहते हुए के समान अग्निने ऊपर बढ़ती हुई अपनी ज्वालाओंसे अपने शरीरको प्रकाशित ( या व्याप्त ) किया। [ पहले दमयन्तीको पत्नीरूपमें पानेके लिए कामजन्य संमोह ( अज्ञान ) युक्त अग्निदेव स्वयंवर में नलरूप धारणकर आये थे, किन्तु अब दमयन्तीकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर अपना वास्तविक रूप ग्रहण कर लिया ] // 60 // पत्यौ वृते भीमजया न वह्नावह्ना स्वमह्नाय निजुह्न वे यः / जनादपत्रप्य स हा सहायस्तस्य प्रकाशोऽभवदप्रकाशः // 61 / / / .. 1. 'महान्धकारं निर्वापयिन्यन्निव' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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