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________________ चतुर्दशः सर्गः। 845 पद्मं मुखारविन्दं, कथंकथञ्चिदतिकृच्छ्रण, दरवीक्षिता ईषदृष्टा, श्रीः यस्य तत् ताहशम् / शैषिक-क-प्रत्ययस्य वैभाषिकत्वादभावः, 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' इति हस्वः / 'ईषदर्थे दराव्ययम्' इति वैजयन्ती। कृत्वा लज्जावशात् लेशतो दृष्ट्वेत्यर्थः, वाग्देवतायाः सरस्वत्याः, वदनेन्दुबिम्बं सामिदृष्टम् अर्द्धदृष्टम्, 'सामि त्वद्धं जुगुप्सिते' इत्यमरः / अकृत अकार्षीत् , तत्रापि लज्जेति भावः / नाहं शक्नोमि त्वया कारयित. व्यमिति देवीमुखवीक्षणे तात्पर्यमवधार्यम् // 28 // ' सलज्जा उस ( दमयन्ती ) ने किसी-किसी तरह अर्थात् बड़ी कठिनाईसे नलके मुखको ( लज्जावश ) थोड़ा-सा देखकर सरस्वतीके मुखरूप चन्द्रबिम्बको ( लज्जावश ) आधा देखा। [ लज्जावती दमयन्तीने अतिशय लज्जाके कारण नलके मुखको तो बहुत ही थोड़ा देखा और तदनन्तर 'मैं लज्जावश वरणमालाको नलके कण्ठमें नहीं डाल सकती, अतः तुम इस कार्यको शीघ्र करो (या-करावो )' इस अभिप्रायसे सरस्वतीके मुखको भी उसी लज्जा के कारण पूरा नहीं किन्तु आधा ही देखा ] // 28 // नं जानतीवेदमवोचदेनामाकूतमस्यास्तदवेत्य देवी। . भावस्त्रपोर्मिप्रतिसीरया ते वितीयते लक्षयितुं न मेऽपि / / 29 / / . न जानतीति / देवी वाग्देवी, अस्याः भैम्याः, तत् पूर्वोक्तम् आकूतम् अभिप्रा. यम, अवेत्य ज्ञात्वा न जानतीव अबुध्यमानेव. एनां भैमीम् , इदं वक्ष्यमाणम्, वाह-त्रपायाः ऊर्मिरेव तरङ्ग एव, प्रतिसीरा जवनिका, 'प्रतिसीरा जवनिका स्यात्ति रस्करणी च सा' इत्यमरः, तया का, ते तव, भावः अभिप्रायः, मे ममापि, लक्ष. यितुं ज्ञातुं, तुमुन् प्रयोगस्तूदीच्यानाम् न वितीर्यते न दीयते, लजान्तर्हितो भावोऽयं कण्ठोक्तिमन्तरेण दुर्जेय इत्यर्थः // 29 // देवी ( सरस्वती देवी ) इस ( दमयन्ती ) के उस (14 / 28 ) भावको समझ कर नहीं समझती हुई के समान बोली-'लज्जा-समूहरूप पर्दा तुम्हारे भावको मुझे लक्षित करने ( मालूम होने ) नहीं देता। [ पर्दे के भीतरकी वस्तुको जैसे कोई नहीं देख सकता, वैसे ही लज्जा-समूहसे तुम्हारे भावको मैं नहीं देख ( समझ ) सकती अर्थात् जब तक तुम लज्जा-समूहरूप पर्दे को दूर कर अपने भावको नहीं कहोगी, तब तक मैं तुम्हारा भाव नहीं समझ सकती, अत एव तुम अपने भाव को स्पष्ट कहो ] // 29 // देव्याः श्रुतौ नेति नलार्द्धनाम्नि गृहीत एव त्रपया निपीता। अथाङ्गुलीरङ्गुलिभिः स्पृशन्ती दूरं शिरः सा नमयाञ्चकार // 30 // देच्या इति / अथ सरस्वतीवाक्यानन्तरं, देव्याः सरस्वत्याः, श्रुतौ कणे, 'न' - 1. 'अजानती-' इति 'प्रकाश' कारसम्मतं पाठान्तरम् / ' 2. 'देव्या' इति तृतीयान्तं पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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