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________________ द्वादशः सर्गः। 711 तत्पर तथा महावंश ( श्रेष्ठ कुल, पक्षा०-ऊँचे बाँस ) का आश्रयकर (इस राजाकी) कीर्ति रूपिणी नटी कौतुकके साथ नाच रही है आश्चर्य है ? ( नटी जिस प्रकार पहले पृथ्वीपर घूमकर बादमें बड़े बांशपर चढ़कर निरवलम्ब आकाशमें भ्रमण करनेका अभ्यास करने में लगी हुई सी कौतुक के साथ नाचती है, उसी प्रकार इस राजाकी कीर्ति पृथ्वीमें घूमकर अर्थात् व्याप्त होकर उत्तम वंशवाले इस राजाका आश्रयकर निरवलम्ब आकाशमें विहार करनेमें तत्पर हो रही है / इस राजाकी कीर्ति भूलोकव्याप्त होकर आकाशमें फैल रही है, अत एव कीर्तिमान् राजाका वरण करो] // 16 // इतो भिया भूपतिभिर्वनं वनात् अटद्भिरुच्चैरटवीत्वमीयुषी / निजाऽपि साऽवापि चिरात् पुनः पुरी पुनः स्वमध्यासि विलासमन्दिरम्।। इत इति / इतोऽस्मात् राज्ञः, भिया भयेन, वनात् वनम् अटद्भिः भ्रमद्भिः, भूपतिभिः प्रतिभूपैः, उच्चैरटवीत्वं चिरं जनहीनतया अवस्थानात् महाटवीत्वम् , ईयुषी प्राप्ता, सा पूर्वावासभूता, निजा स्वकीया, पुरी नगरी अपि, चिरात् बहोः कालात् परं, पुनरवापि वनान्तरभ्रमेण पुनः प्राप्ता, स्वं स्वकीयं, विलासमन्दिरं क्रीडागृहञ्च, पुनरध्यासि वनान्तरभ्रमेणवाध्यासितम् , आसेरधिपूर्वात् कर्मणि लुङ एतस्य राज्ञो भयात् पुरीं त्यक्त्वा पलायिवाः प्रतिभूपाः बहोः कालादरण्यभूते स्वन. गरे स्वविलासमन्दिरे च पुनः समागताः तंवनान्तरं बुद्ध्वास्वं गोपायन्तीति भावः। विलेषु आसते इति विलासा विलेशयाः, सस्तेिषां मन्दिरमिति विशेषणस्वेनापि योज्यम् / अत्रैकस्य अरिवर्गस्य अनेकासु अटवीषु अटवीभूतपुरीषु च क्रमात् वर्तमानत्वेन तथा पुरीष्वपि पुरीत्वाटवीत्वयोः क्रमसम्बन्धोक्त्या च 'एकम् अनेकस्मिन् अनेकमेकस्मिन् वा क्रमेण पर्यायः' इत्युक्तलक्षणं पर्यायभेदद्वयं द्रष्टव्यम् // 17 // __इसके मयसे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते हुए ( शत्रुभूत ) राजालोग बहुत समयके बाद महावन बनी हुई अपनी भी उस नगरीको प्राप्त किया, बादमें विलासमन्दिर (अपने विलासके भवनों, पक्षा०-विलमें सोनेवालों के घरों ) को प्राप्त किया। [इसके भयसे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते हुए राजालोग बहुत समय के बाद बड़े वनरूपमें परिणत अपनी नगरीमें आये ( उसे अपनी नगरी समझकर नहीं, किन्तु यह भी कोई एक बन ही है। ऐसा समझकर आये ) तथा बाद में अपने विलासभवनोंको प्राप्त किये वे विलासभवन इतने लम्बे समयके बाद पूर्वरूपमें नहीं रह गये हैं, किन्तु महावनमें परिणत नगरीके समान वे भी विलमें रहनेवाले खरगोश आदि जानवरों के घर के रूपमें परिणत हो गये थे, उन्हें वे राजा प्राप्त किये अर्थात् इस राजाने शत्रुओंकी नगरी ( राजधानी ) को उजाड़कर बन तथा उनके महलोंको विलमें रहनेवाले खरगोश आदिका घर बना दिया है ] // 17 // आसीदासीमभूमीवलयमलयजालेपनेपथ्यकोतिः सप्ताकूपारपारीसदनजनघनोद्गीतचापप्रतापः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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