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________________ 831 चतुर्दशः सर्गः। मुनिमासने-' (माघ 1 / 15) इतिवण्ण्यन्तस्य वसेः प्रकृत्यन्तरत्वात् 'हृत्पद्मसद्मनी' त्याधारस्य न कर्मत्वम् // 1 // ) ____ इस ( देव-पूजन ) के बाद इस ( दमयन्ती) ने एकाग्र चित्त होकर हृत्पद्मरूप गृहमें इन ( इन्द्रादि देवों ) को बसा ( स्थापित ) कर ( पुनः ) ध्यान अर्थात् ध्यानसे साक्षात्कार किया; क्योंकि देवोंकी जो स्पष्ट भावना ( ध्यानादिके द्वारा साक्षात्कार ) है, वह फलभावना . ( कार्यसिद्धि ) का पूर्वरूप है। [ कार्यके पहले कारणका होना अत्यावश्यक होनेसे यहांपर देवोंके साक्षात्कारका समस्त कार्यों के प्रति कारण होनेसे दमयन्तीने पहले कारण-सामग्रीरूप देव-प्रत्यक्षताको ध्यानसे किया / पूजाके आरम्भ तथा अन्तमें ध्यान करना आवश्यक होनेसे पूर्वोक्त 'यत्तान्-' ( 14 / 4 ) तथा इस श्लोक की पुनरुक्तिका दोष नहीं होता ] // 1 // भक्त्या तयैव प्रससाद तस्यास्तुष्टं स्वयं देवचतुष्टयं तत् / स्वेनानलस्य स्फुटतां यियासोः फूत्कृत्यपेक्षा कियती खलु स्यात् ?||7|| भक्त्येति / स्वयं स्वत एव, सेवादिकं विनाऽपि पूर्व तच्चारित्र्यदायादेवेत्यर्थः, तुष्टं सन्तुष्टं, तत् प्रकृतं, देवचतुष्टयम् इन्द्रादिदेवचतुष्कं, तस्या भैम्याः , तया भक्त्या एव क्षणकालकृतसेवयव, प्रससाद अनुजग्राह, एवकारस्त्वविलम्बसूचनार्थः। तथा - हि, स्वेन स्वत एव, स्फुटतां व्यक्तता, प्रज्ज्वलितत्वमित्यर्थः, यियासोः यातुमिच्छोः, अनलस्य वह्नेः, फूत्कृतेः फूत्कृतस्य, फूत्कारमारुतस्य इत्यर्थः, अपेक्षा कियती खलु स्यात् ? नात्यन्तम् अपेक्षते इत्यर्थः; स्वत एव प्रसन्नस्य देवगणस्य तत्कृता भक्तिः स्वत एव प्रज्ज्वलिष्यतोऽग्नेः फूत्कृतिरिव झटिति कार्यप्रादुर्भावमात्रफला अन्यथाऽपि प्रज्ज्वलनवत् प्रसादावश्यम्भावादिति भावः / अत्र वाक्यद्वये भक्तिफूत्कृत्योः कार्यान. पेक्षितत्वलक्षणसमानधर्मस्यैव फूत्कार-कियच्छब्दाभ्यां बिम्बप्रतिबिम्बतया उक्तेदृष्टा. न्तालङ्कारः; 'विम्बानुबिम्बन्यायेन निर्देशे धर्मधर्मिणाम् / दृष्टान्तालकृति या भिन्नवाक्यार्थसंश्रया // ' इति विद्याचक्रवर्तिलक्षणात् // 7 // ( स्वयंवरसे पहले दमयन्तीद्वारा की गयी पूजादिके द्वारा पहलेसे ) स्वयं प्रसन्न वे इन्द्रादि चारों देव उस ( दमयन्ती ) की उस (तत्कालकी गयी थोड़ी ही) भक्तिसे ही प्रसन्न हो गये / स्वयं स्पष्ट होनेवाली ( जलनेवाली) अग्निको फूंकने की कितनी अपेक्षा होती है अर्थात बहुत कम होती है / ( पङ्खा आदिके द्वारा हवा करने के कारण शीघ्र जलनेवाली अग्नि बहुत थोड़ा फूंकनेसे जलने लगती है, अतः स्वयं प्रसन्न उन इन्द्रादि चारों देवोंका दमयन्ती की थोड़ी भक्तिसे प्रसन्न होना उचित ही है ] // 7 // प्रसादमासाद्य सुरैः कृतं सा सस्मार सारस्वतसूक्तिस्सृष्टेः / देवा हि नान्यद् वितरन्ति किन्तु प्रसद्य ते साधुधियं ददन्ते // 8 // 1. 'तस्याश्चरित्रादथ ते पवित्रात्प्रागेव हृष्टा झटिति प्रसेदुः' इत्यपि पाठः स्पष्टार्थः' इति नारायणभट्टाः।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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