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________________ चतुर्दशः सर्गः। 827 उन्हें प्रसन्न कर नलको पाने में श्रेयस्कर समझा, क्योंकि ब्रह्माने देवों के लिए सुरभि (गो-विशेष) को कामधेनु ( मनोरथको पूरा करनेवाली ) बनाया है और मनुष्यों के लिए तो उस (देवपूजा ) को ही कामधेनु बनाया है / [ देवों की इच्छाको पूर्ण करनेवाली 'सुरभि' नामक गौ तथा मनुष्योंकी इच्छाको पूर्ण करनेवाली 'देव-पूजा' ही है, अतएव दमयन्तीका उक्त विचार करना परमोत्तम मार्ग था ] // 1 // . 'प्रदक्षिणप्रक्रमणालवालविलेपधूपावरणाम्बुसेकैः / इष्टञ्च मृष्टश्च फलं सुवाना देवा हि कल्पद्रमकाननं नः॥२॥ प्रदक्षिणेति / प्रदक्षिणप्रक्रमणं प्रदक्षिणरूपेण परिक्रमणम् एव, आलवालं वृक्षमूले जलधारणार्थं सेतुविशेषः, तथा विलेपश्चन्दनादिचर्चा, स एव विलेपः पिण्याकादिलेपः, धूपो दशाङ्गादिधूपः, स एव दोहदधूपश्च, आवरणमङ्गदेवतापरिवेष्टनं, तदेव शाखावरणम् , अम्बुसेकोऽभिषेकः, स एव मूलेषु जलसेकः, तेषां द्वन्द्वः तैः करणैः, इष्टञ्च प्रियञ्च, मृष्टञ्च अवदातञ्च, फलमीप्सितं वस्तु, तदेव फलं सस्यं, 'सस्ये हेतुकृते फलम्' इत्यमरः, सुवाना जनयन्तः, सूतेः कर्तरि लटः शानजादेशः. देवा हि देवा एव, नोऽस्माकं नृणां, कल्पद्रुमाणां काननं वनम् / अत्र प्रदक्षिणप्रक्रमणाद्यालवालाद्यवयवरूपणाद् देवेषु कल्पद्रुमरूपणाच समस्त वस्तुविवर्तिसावयवरूपकम् // 2 // प्रदक्षिणा में भ्रमणरूप थाला, चन्दनादि-चर्चारूप खली आदिका लेप, (दशाङ्ग ) धूपरूप दोहद धूप, अङ्ग-प्रत्यङ्ग देवताका परिवेष्टन (या वस्त्रादि पहनाना) रूप चौतरफा रक्षार्थ घेरा डालना ( बाढ़ बनाना ) और जलाभिषेकरूप सींचना-अथवा-प्रदक्षिणमें भ्रमण रूप थालेमें चन्दनचर्चन दशाङ्गधूप तथा अङ्ग-प्रत्यङ्ग देवताका परिवेष्टन (पाठा०-... धूपोंका आचरण )-रूप जलसिञ्चनसे अभीष्ट तथा स्वभावसुन्दर फल अर्थात मनोरथ ( पक्षा०-अभिलषित तथा स्वादिष्ट फल आम आदि ) को उत्पन्न करते हुए देव हमलोगों के ( लिए ) कल्पद्रुमों के वन हैं। [ जब एक भी कल्पद्रुम सबका मनोरथ पूरा करता है तो कल्पद्रुमोंका वन होनेपर मनोरथ के पूरा होनेमें क्या सन्देह है ?, अतः पूजाद्वारा देवरूप कल्पद्रुमवनसे नलको पानेके लिए प्रयत्न करनेका दमयन्तीने बहुत सुन्दर उपाय सोचा]।।२।। 1. अस्मात्पूर्व 'प्रकाश' व्याख्यायां वक्ष्यमाणश्लोकः क्षेपकरूपेण दृश्यते / स यथा. 'अथाधिगन्तुं निषधेशमेषां प्रसादनं दानवशात्रवाणाम् / अचेष्टतासौ महतीष्टसिद्धिराराधनादेव हि देवतानाम् // ' इति / अत्र 'सुखावबोध'व्याख्याकारः–'पूर्वोक्त एवार्थो भङ्गयन्तरेण निबद्धः, अत एव पाठान्तरम् / केचिदादर्शपुस्तकेषु स्वयं श्लोको नास्त्येव' इत्याहुः / 2. 'चरणाम्बु' इति पाठान्तरम् / 52 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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