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________________ त्रयोदशः सर्गः। 823 स कल्पवृक्षोऽपि मयि प्रतिषेधरूक्ष एव स्यात्तथाविधो मे भाग्यविपर्यय इति भावः॥५०॥ इस समय ( अथवा-नलकी एकता) में इस प्रकार अर्थात् नलके अनेक होनेसे जैसा मेरा अभाग्य है, इस प्रकार (या-इस कारण ) मुझसे याचना किया गया वह ( अतिशय दानी ) कल्पवृक्ष भी सङ्कोचरूपी अतिशय ज्वर (ताप ) वाले पत्ते ही हैं अङ्गलियां जिनके ऐसे पल्लवरूप हस्ताग्रवाला होता हुआ बद्धमुष्टि ( नहीं देनेके अभिप्रायसे बँधी हुई मुट्ठीवाला पक्षा०कृपण ) ही होगा। [ सर्वदा दानशील भी कल्पवृक्ष मुझे नलके लिए याचना करनेपर मेरे अभाग्यवश बद्धमुष्टि (कृपण ) हो जायेगा अर्थात् नलको नहीं देगा, अत एव मेरा कल्पवृक्षसे भी नलको मांगना व्यर्थ है। मुट्ठी बाँधनेवाले व्यक्तिके हाथकी अङ्गुलियोंका सङ्कुचित होना उचित ही है ] / / 50 / / देव्याः करे वरणमाल्यमथापये वा ? यो वैरसेनिरिह तत्र निवेशयेति / सैषा मया मखभुजां द्विषती कृता स्यात् स्वस्मै तृणाय तु विहन्मि न बन्धुरत्नम् // 51 // देव्या इति / अथवा इह पञ्चानां मध्ये, यो वैरसेनिः नलः, तत्र तस्मिन् , निवेशय संस्थापय, इति, उक्तेति शेषः, देव्याः वाणीदेव्याः, करे वरणमाल्यं पतिवरणनिमित्तं मालाम् , अर्पये ? तच्च न युज्यते इत्याह-सैषा देवी सरस्वती, मया मखभुजां देवानां, द्विषती द्वेषिणी, विद्वेषपात्रीत्यर्थः, 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्ययः। 'उगितश्च' इति ङीप् / 'द्विषः शतुर्वा' इति विकल्पात् षष्ठी, कृता स्यात् ; तथा च मत्प्रेरणया देव्या यथार्थनले वरमाल्यार्पणे कृते सति इन्द्रादीनां नलरूपधारणरूपमाया प्रकाशिता भवेत् , एवञ्च सति देव्युपरि इन्द्रादीनां विद्वेषो भविष्यतीति भावः। तृणाय तृणकल्पाय, स्वस्मै स्वार्थम् इत्यर्थः, तृणतुल्यस्य निजस्य कार्यसिद्धये इति भावः, बन्धुः रत्नमिव इति बन्धुरत्नं परमवन्धुं, तु पुनः, न विहन्मि न विरु. णध्मि तथा च देव्युपरि इन्द्रादीनां विद्वेषे जाते तद्विद्वेषस्य मन्मूलकत्वेन मदुपरि देव्याः पूर्ववत् बन्धुभावो विहतो भविष्यतीति भावः // 51 // अथवा 'इन ( पांचों नलों ) में जो वीरसेन-पुत्र ( नल ) हो, उसमें इस जयमालाको डालदो' ( ऐसा कहकर ) सरस्वती देवीके हाथमें इस जयमालाको दे दूं ?, (किन्तु ऐसा करके ) मैं ( सरस्वती देवी के द्वारा इन्द्रादिके कपटको प्रकट कराकर ) इस सरस्वतीको देवोंका शत्रु बना दूंगी, ( अत एव नलप्राप्तिरूप मेरा अभीष्ट लाभ भले न हो, किन्तु) तृणरूप अपने लिए (सरस्वतीरूप ) बन्धुरत्नको नहीं नष्ट करूंगी। [ मेरी प्रार्थनाके अनुसार सरस्वती देवीके द्वारा सत्यनलके कण्ठमें जयमाल डाल देनेपर इन्द्रादिदेव अपना कपट प्रकट हो जाने के कारण सरस्वती देवीसे विरोध करने लगेंगे, अतएव मैं ऐसा कार्य
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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