________________ द्वादशः सर्गः। 706 (तीर्थराज प्रयाग ) में स्नान करनेवाला व्यक्ति स्वर्गीय रम्माके साथ आलिङ्गनादि सुखको पाता है, उसी प्रकार इस राजाके बाहुद्वयसे उत्पन्न श्वेतवर्ण कीर्तिरूपिणी गङ्गा तथा शत्रु की श्यामवर्ण अकीर्तिरूपिणी यमुनाके सङ्गम युद्धभूमिमें डूबने ( स्नान करनेवाला, पक्षामरनेवाला ) योद्धा रम्माके आलिङ्गन सुखके स्थान नन्दनवनमें अत्यन्त आसक्ति के साथ क्रोडा करने लगता है / युद्ध में मारे गये योद्धाको स्वर्गप्राप्त, अप्सराओंका लाम एवं नन्दन वनमें क्रीडा करना शास्त्रीय वचनोंसे प्रमाणित है। बाहुजन्य कोर्तिको श्वेत गङ्गा तथा शत्रुकी अकीतिको कृष्णवर्ण यमुना मानना उचित ही है। इस राजाने युद्धभूमिमें बहुत से क्षत्रिय शूरवीरों को मारकर स्वर्ग पहुंचाया है अत एव वीर इस 'ऋतुपर्ण' राजाका वरण करो] // 12 // इति श्रुतिस्वादिततद्गुणस्तुतिः सरस्वतीवाङ्मयविस्मयोत्थया / शिरस्तिरःकम्पनयैव भीमजा न तं मनोरन्वयमन्वमन्यत // 13 // इतीति / भीमजा भैमी दमयन्ती, इतीत्थं, श्रुतिस्वादिता श्रोत्रगृहीता, तस्य ऋतुपर्णस्य, गुणानां स्तुतिः यया ताहशी सती, सरस्वत्या देव्याः, वाङ्मये वाक्प्रपा विषये, यो विस्मयः तदुस्थया शिरसस्तिर कम्पनयैव अवज्ञासूचकमस्तकचालनेनव, मनोः अन्वयं मनुवंशोद्भवं, मनुसन्तानमित्यर्थः, तम् ऋतुपर्ण, न अन्वमन्यत अनुमोदनं न कृतवती, न्यषेधीत् इति यावत् , विस्मयाभिनयशिरकम्प एव प्रसङ्गानिषेधार्थोऽपि संवृत्त इति भावः // 13 // मोमकुमारी ( दमयन्ती ) ने इस प्रकार (12 / 5-12) कानसे सुनी गयी उस ( 'ऋतुपर्ण' राजा) की प्रशंसावाली सरस्वतीके ( वाक्समूहमें ) (या वाक्समूहसे) होनेवाले आश्चर्यसे उत्पन्न शिरः कम्पनसे ही मनुवंशोत्पन्न उस ( 'ऋतुपर्ण राजा ) को स्वीकृत नहीं किया। [ कानोंसे आदरपूर्वक ऋतुपर्णको गुण-स्तुति सुनकर दमयन्ती आश्चर्यित होकर शिर कंपाकर उस मनुवंशोत्पन्न राजाको स्वीकृत नहीं किया। आश्चर्यजन्य शिरःकम्पनसे .ही निषेध भी सूचित कर दिया। सोमवंशोत्पन्न 'नल' को चाहनेवाली दमयन्तीने अभिलषित आह्लादक गुण सूर्यवंशोत्पन्न उस 'ऋतुपर्ण राजामें नहीं होनेसे उसका त्याग कर दिया। चन्द्रगत आह्लादक गुण सूर्य में नहीं होने से चन्द्रवंशोत्पन्न नलको चाहनेवाली दमयन्तीका सूर्यवंशोत्पन्न अयोध्याधीश 'ऋतुपर्ण' को अस्वीकार करना उचित ही है ] // 13 // युवान्तरं सा वचसामधीश्वरा स्वरामृतन्यकृतमत्तकोकिला | शशंस संसक्तकरैव दिशा निशाकरज्ञातिमुखीमिमां प्रति // 14 // युवेति / स्वर एवामृतं तेन न्यकृतस्तिरस्कृतः, मत्तः वसन्तकालहृष्टः, कोकिलो यया सा ताहशी, वचसामधीश्वरा वाग्देवता, सा सरस्वती, अन्यं युवानं युवान्तरं, सुप्सुपेति समासः, तस्य यूनः, दिशा दिग्भागेन, संसक्तकरा व्यापृतहस्ता, हस्तेन तं निदिशन्ती एवेत्यर्थः, निशाकरज्ञातिमुखी चन्द्रसहशमुखीमित्यर्थः, ज्ञातिसोदरब.