SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रयोदशः सर्गः। भावः, तथा एषु नलेपु पञ्चसु, प्रत्येकम् एकैकस्मिन् , परिमोहयमाणाः प्रत्येकमेतान् दमयन्तीविषये सम्मोहयन्त इत्यर्थः, कर्मण्यधिकरणविवक्षया सप्तमी 'तस्मिन् प्रजह' रितिवत् / 'अणावकर्मकाञ्चित्तवस्कत कात्' इत्यादिना परस्मैपदप्राप्तावपि 'न पादम्याङ्यमा-'इत्यादिना परस्मैपदनिषेधादात्मनेपदं, कृत्यचः 'णेर्विभाषा' इति णत्वम् / बाणाः यस्य स तादृशः सन् , निजशिलीमुखान् निजबाणान् , शीलयतीति तच्छीलिन्याः तत्समवायिन्याः, सङ्ख्यायाः, पञ्चसङ्ख्यायाः, साफल्यमाप यदि तदा जानीमहे पञ्चसङ्ख्या साध्वीति मन्यामहे इत्यर्थः। अत्रोत्कण्ठासम्मो. हनपदार्थयोर्विशेषगगत्या साफल्यप्राप्तिहेतुकं काव्यलिङ्ग, तच्च साफल्यं यदिशब्दात् सम्भावनामात्रेणोक्तमित्युत्प्रेक्षा काव्यलिङ्गोत्थेति सङ्करः // 37 // मोहजनक बाणोंवाला तथा इसे ( दमयन्तीको ) प्रत्येक इन ( इन्द्रादि पांच ) नलोंमें एक समय अलग-अलग उत्कण्ठित करते हुए पञ्चबाण ( पांच बाणोंवाले कामदेव ) ने अपने बाणों की पांच सङ्ख्या होने की सफलता यदि प्राप्तकी तो उसी समय की अर्थात् दूसरे समयमें नहीं, ऐसा हम जानते (उत्प्रेक्षा करते ) हैं। (एक नलमें एक बाणसे ही अनुरागोत्पादन करने पर शेष चार बाण व्यर्थ हो जाते हैं / 'क्या यह नल है ?' इस प्रकार इन्द्रादि पांचों नलोंको नल समझने पर पांचोंमें प्रत्येकके प्रति पृथक-पृथक् एक साथ अनुरागोत्पादन करने में ही पांच बाणोंका होना सफल है अन्यथा नहीं। अथवा-एक साथ इस दमयन्तीको पृथक्-पृथक् पाँचों नलों में उत्कण्ठित करता हुआ तथा इन पांचों नलोंमें दमयन्ती-विषयकअनुरागोत्पादक बाणोंवाला कामदेवने यदि अपने बाणोंकी पांच सङ्ख्या होनेकी सफलता प्राप्त की तो उसी समय की, दूसरे समयमें नहीं (अर्थात्-उन पांच नलों में पृथक्-पृथक् दमयन्तोको एक साथमें उत्कण्ठित करता हुआ तथा पांचों नलोंको भी पृथक्-पृथक एक साथ दमयन्तीके प्रति अनुरागी बनानेसे कामदेवने अपने पांच बाणोंकी सफलता प्राप्त कर ली)। पांच पुरुषों में उत्कण्ठित होने पर भी नलबुद्धि होने के कारण ही उनमें उत्कण्ठित होनेसे दमयन्तीका पातिव्रत्य भङ्ग नहीं होता ] // 37 // देवानियं निषधराजरुचस्त्यजन्ती रूपादरज्यत नले न विदर्भसुभ्रः / जन्मान्तराधिगतकर्मविपाकजन्मैवोन्मोलति कचन कस्यचनानुरागः // 38 / / देवानिति / निषधराजस्य नलस्येव रुक सौन्दर्य येषां तादृशान् , देवान् त्यजन्ती इयं विदर्भसुभ्रः वैदर्भी, रूपात् सौन्दर्यात् ,नले न अरज्यत न रक्ता,रजेवादिकात् कर्तरि लुङि तङ्, किन्तु कस्यचन कस्यचिजनस्य, जन्मान्तरे अधिगतस्य कर्मणो विपाकात् परिणामात् , जन्म यस्य तादृशः, 'अवयो वहुव्रीहिय॑धिकरणो जन्मायुः त्तरपदे' इति वामनः / अनुरागः एव वचन कुत्रचिजने, उन्मीलति उद्भवति / रूप. साम्येऽपि देवपरिहारेण नले एवानुरागः अस्याः कर्मायत्तो न रूपायत्तः, अन्यथा किमर्थं यथार्थनलान्वेषणमित्युत्प्रेक्षा / एतेनास्या दृढव्रतत्वम् उक्तम् इति ज्ञेयम्॥३०॥ __निषधेश्वर ( नल ) की शोभावाले देवों (इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण) को छोड़ती
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy