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________________ त्रयोदशः सर्गः। 807 अन्यत्र ( नलपक्षे)-भवत्या एष धराजगत्याः भूलोकस्य, पतिः रक्षकः, देवो राजा, 'देवः सुरे घने राज्ञि' इति विश्वः, नैषधराजगत्या नलमहाराजरूपेण, नैषधराजस्य नलस्य, गत्या ज्ञानेन वा, अथवा नैषधराज एव गतिजीवनोपायो यस्यास्तया, भवत्या इत्यस्य विशेषणम्, पतिर्भर्त्ता, न निर्णीयते किमु ? न वियते किमु ? अयं ना पुरुषः नलः खलु अतोऽयमेव वरणीय इत्यर्थः, एनं नलम्, उज्झसि यदि तव अतिमहान् अलाभोऽनर्थः, वर इत्यादि पूर्ववत् // 33 // इन्द्रपक्षमें-हे पण्डिते ( मेरी इलेषोक्तिको समझने में चतुर दमयन्ति ) ! यह देव ( स्वर्गमें क्रीड़ा करनेवाला, या देवता) भूलोक का स्वामी नहीं है ( किन्तु देवता एवं स्वर्ग: लोक का स्वामी इन्द्र है यह ) तुम नहीं निश्चय करती हो ? और इसे वरण (पतिरूप में स्वीकार ) नहीं करती हो ? अर्थात् इसे इन्द्र जानकर वरण करना चाहिये। ( अथवा-... तुम नहीं निश्चय करती हो ? ( क्योंकि इसे ) वरण नहीं करती हो ) ( यदि तुम इसे इन्द्र होने का निश्चय कर लेती तो मनुष्यापेक्षासे देव उसमें भी देवोंका स्वामी इन्द्र होनेसे इसे अवश्य वरण कर लेती, इसीलिए तुमने इसके इन्द्र होने का निश्चय नहीं किया है ऐसा जान पड़ता है), अथवा-पर्वतों के क्षेपणमें गतिमान् ( वज्र ) से पुरुष अर्थात् समर्थ यह इस देव ( इन्द्र) को पति नहीं निश्चित करती हो ? ( और निश्चित करती हो तो क्यों) वरण नहीं करती ? अर्थात् इसे पति निश्चित कर वरण करना चाहिये, अथवा-... .. पति नहीं निश्चित करती अर्थात् निश्चित करती ही हो फिर क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् पति निश्चित करके अवश्य ही वरण करना चाहिये / अथवा-हे ( दमयन्ति ) ! पर्वतों को क्षेपण करने ( फेंकने ) वाला इन्द्र ही है गति जिसका ऐसो पूर्व दिशा का पति ( पूर्वदिक्पाल इन्द्र ) का नहीं निर्णय करती ( ऐसा नहीं है तथापि ) क्यों नहीं वरण करती ? / निश्चय ही यह नल नहीं है ( किन्तु ) अतितेजस्वी नलाभ ( नलके तुल्य आभावाला) तुम्हें ज्ञात होता है जानं पड़ता है ( मनुष्यापेक्षा अधिक तेज होनेसे वरण करने योग्य है ) / अथवा-यह नल ( तृणवत् तुच्छ सारवाला ) नहीं है (किन्तु ) अतिनल ( जल नामक तृणसे अधिक सार वाला है, इस कारण भी वरण करने योग्य है)। अथवा-यह नल नहीं है (अत एव इसके वरण करने पर ) तुम्हें बड़े-बड़े उत्सव स्वर्गमें नन्दन वन विहार एवं सुमेरु पर्वतपर क्रीड़ा आदि ) तथा जीने का लाभ प्राप्त होगा, अर्थात्-इसके वरण करने से तुम्हें नन्दनक्रीडा आदि करने का अवसर अनायास ही प्राप्त होगा, अथवा-बहुत दिनों तक जीवन का लाभ होगा अर्थात् इसके वरण करनेसे तुम अमृतपान सुलभ हो नेसे बहुत दिनों तक जीओगी ( अमर हो जावोगी)। यदि इस ( अथवा-'अ = इनम्' अर्थात् विष्णुके बड़ा भाई होनेसे स्वामी = इन्द्र ) को छोड़ोगी तो दूसरा तुम्हें कौन वर ( पति या श्रेष्ठ ) मिलेगा? अर्थात् संसार में विष्णुके भी स्वामी इन्द्र को छोड़ने पर तुम्हें इससे श्रेष्ठ कोई नहीं मिलेगा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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