SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधमहाकाव्यम् / नालियोंवाले वृत्तोंका अमिनन्दन नरूने किया। फल-मारसे झुके हुए वृक्षों को देखकर ना बहुत प्रसन्न हुए ] // 98 // नृपाय तस्मै हिमितं अनानिलैः सुधीकृतं पुष्परसैरहमहः / विनिर्मितं केतकरेणुभिः सितं वियोगिनेऽधत्त न कौमुदी मुदः // 6 // __अत्रातपस्म चन्द्रिकास्वनिरूपणाय तद्धर्मान् सम्पादयति-नृपायेति / वनानिलैः उद्यानवातैः हिमं शीतलं कृतं हिमितं, तस्करोतेण्यंन्तात् कर्मणि कः। पुष्परसैर्वनः वातानीतैः मकरन्दैः सुधीकृतममृतीकृतं तथा केतकरेणुभिः सितं विनिर्मितं शुभ्री. कृतम् अह्रो महस्तेजः अहमह आतपः 'रोः सुपीति रेफादेशः। तदेव कौमुदीति व्यस्तरूपकं वियोगिने तस्मै नृपाय मुदः प्रमोदान् नाधत्त न कृतवती, प्रत्युतोद्दीपि. कैवाभूदिति भावः // 99 // उपवन-वायुसे ठण्डा किया गया, पुष्पों के मधुसे अमृतके तुल्य बनाया गया तथा केतकी-पुष्पके परागोंसे श्वेतवर्ण किया गया भी दिनको धूप विरही उस राजा ( नल) के लिए चाँदनीके मानन्दको नहीं दे सकी। [ यद्यपि उक्त कारणत्रयसे शीतल, अमृतयुक्त एवं श्वेत वर्ण होनेसे दिनकी धूप चाँदनी-जैसा सुखद हो रही थी, किन्तु विरहियों के लिए चाँदनीके दुःखद होनेसे वैसे धूपसे भी नलको सुख नहीं हुआ ] // 99 // वियोगभाजोऽपि नृपस्य पश्यता तदेव साक्षादमृतांशुमाननम् / पिकेन रोषारुणचक्षुषा मुहुः कुहूरताऽऽहूयत चन्द्रवैरिणी / / 100 / / वियोगेति / वियोगमाजोऽपि वियोगिनोऽपि नृपस्य तदाननमेव सासादमृतांशुं प्रत्यवचन्द्रं पश्यता अत एव रोषादद्यापि चन्द्रतां न जहातीति क्रोधादिवारुणधनुषा पिकेन चन्द्रवैरिणी कुहूर्निजालाप एव कुहूर्नष्टचन्द्रकला अमावास्येति श्लिष्टरूपकं, 'कुहूः स्यात् कोकिलालापनष्टेन्दुकलयोरपीति विश्वः / मुहुराहूयत माहूता किमित्युस्प्रेक्षा पूर्वोकरूपकसापेक्षेति संकरः। अस्य चन्द्रस्येयमेव कुहूराहानीया स्यात् तरकान्तिराहित्यसम्भवादिति भावः // 10 // _ विरही मी राबा ( नल ) के मुखको साक्षात् चन्द्रमा ही देखते हुए (अतएव–'यह विरही होकर मी मरिन नहीं हुआ, प्रत्युत चन्द्रतुल्य सुन्दर ही है' ऐसा विचारकर ) क्रोधसे लाल नेत्रोंवाला तथा 'कुहू' शब्द करनेवाला पिक पुनः चन्द्रमाको विरोधिनी (कुहू' अर्थात् मदृष्ट चन्द्रकलावाली अमावस्या तिथि ) को बुलाने लगा। ( अथवा-निश्चित ही चन्द्र विरोधिनी कुहूको बुझाने लगा)। विरहावस्थामें भी नरमुख चन्द्राधिक सुन्दर था // 10 // अशोकमर्यान्वित नामताशया गतान् शरण्यं गृहशोचिनोऽध्वगान् / अमन्यतावन्तमिवैष पल्लवैः प्रतीष्टकामज्वलदखजालकम् / / 101 // 1. 'अयोग-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy