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________________ एकादशः सर्गः। 665 कुण्ठित करनेवाला इस ( काशीनरेश ) का हृदय वज्रके समान आचरण करता है अर्थात् वज्र ही है ( वज्र भी अभिमें नहीं फूटता है तथा उसपर गिरे हुए शस्त्र कुण्ठित हो जाते हैं / अथवा-इसका उक्तरूप हृदय हीरेके समान आचरण कर रहा है, हीरा भी अनिमें डालनेपर नहीं फूटता है और उसपर गिरनेवाले शस्त्र कुण्ठित हो जाते हैं / यहां 'वज्र' शब्द इन्द्रास्त्रका वाचक है)। उस ( वज्र ) के कन्दके अङ्कर होनेसे भुजाओंकी प्रतापाग्नि शत्रुस्त्रियों के नेत्रजल ( आँसू ) से भी शान्त नहीं होती। [ हृदयसे उत्पन्न स्थूल मूलवाली भुजाओंसे उत्पन्न प्रतापामिका शत्रुस्त्रियों के नेत्रजलसे नहीं शान्त होना उचित ही है, क्योंकि मेघजल स्वोत्पादित विद्युदग्निको नहीं शान्त करता। प्रकृतमें शत्रुओंके मारनेसे उनकी त्रियोंके रोनेसे उत्पन्न नेत्रजल स्वजन्य भुज-प्रतापानिको नहीं शान्त करता है। वज्रतुल्यअतिकठोर हृदयस्थलसे उत्पन्न बाहुओंसे उत्पन्न तीव्र प्रतापाग्नि शत्रुओंको मारकर भी शान्त नहीं होती। यह राजा शत्रुओंमें निष्करुण एवं उनका नाश करनेवाला है तथा तुम्हारे विरहसे सन्तप्त है, अत एव इसका वरणकर इसे अनुगृहीत करो] // 124 // क नद्रुमा जगति जाग्रति लक्षसङ्घथास्तुल्यांपनीतपिककाकफलोपभोगाः? स्तुत्यस्तु कल्पविटपी फलसम्प्रदानं कुर्वन् स एष विबुधानमृतैकवृत्तीन् / किमिति / तुल्यं निर्विशेषं यथा तथा, उपनीतः सम्पादिता, पिकानां काकानाश फलोपभोगो यैस्ते, लपसङ्ख्या द्रुमाः वृक्षाः, जगति न जाप्रति किम् ? न स्फुरन्ति किम् ? स्फुरन्त्येवेत्यर्थः, तु किन्तु, अमृतैकवृत्तीन् सुधैकजीवनान् , विबुधान् देवान विदुषश्च,फलसम्प्रदानम् ईप्सितार्थप्रतिग्राहिणः, कुर्वन् सर्वामरमनोरथपूरक इत्यर्थः, स एष कल्पविटपी कल्पवृक्षः, कल्पवृक्षकल्पोऽयं काशिराज इत्यर्थः, स्तुत्यः स एक एव स्तोत्रा) नान्य इत्यर्थः, अन्ये नृपतयः असत्पात्रेभ्यः दानं कुर्वन्ति, अयं काशिराजस्तु पण्डितेभ्य एवं ददाति इति भावः। अत्राप्रस्तुतकल्पवृक्षकथनात् प्रस्तुत. काशिराजप्रतीतरप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः, 'अप्रस्तुतस्य कथनात प्रस्तुतं यत्र गम्यते / अप्रस्तुतप्रशंसेयं सारूप्यादनियन्त्रिता।' इति लक्षणात् // 125 // ___ कोयल और कौवेके लिए समान रूपसे फलोंके दनेवाले ( आम्र आदि ) लाखों पेड़ संसारमे नहीं हैं क्या ? अर्थात् अवश्य हैं (किन्तु वे प्रशंसनीय नहीं हैं, अपितु) अमृतमात्र भोजन करनेवाले देवोंके लिए फलोंको देनेवाला यह कल्पवृक्ष प्रशंसनीय है। [प्रकृतमें गुणागुणका विचार छोड़कर समानरूपसे सबको फल देनेवाले आम्र आदिके समान अन्य राजा संसारमें प्रशंसनीय नहीं है, किन्तु अमृतमात्रसे जीनेवाले देवों ( पक्षा०-अयाचित 1. तदुक्तं 'प्रकाश' व्याख्यायां नारायणभट्टेन 'पृथिव्यां यानि रत्नानि ये चान्ये लोहजातयः। ___ तानि वज्रेण लिख्यन्ते वज्रं नान्येन लिख्यते // ' इति / 2. तदुक्तं मनुना-'ऋतमुन्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम् / मृतं तु याचितं भैयं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् // (मनुः 45) 44 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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