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________________ 668 नैषधमहाकाव्यम् / सूरमिति / तस्मिन् लक्षद्वीपे, तस्मादिन्दोः, इतरेषां त्रिदशानाम् अनभिज्ञः इन्दोरन्यं देवमभजमानः, यः चन्द्रभक्तो जनः, सूरे भक्तिर्यस्य स सौरः सूर्यभक्तः, 'भक्तिः' इत्यण , सूरं सूर्यमिव, इन्दुं न अवेक्ष्य न दृष्ट्वा, नाश्नाति न भुङ्क्ते तस्य ऐन्दवस्य इन्दुभक्तस्य, पूर्ववदण प्रत्ययः, भवत्याः आस्यनिरीक्षयैव स्वन्मुखदर्शने. नैव, सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः / दर्श अमावास्यायाम् , अश्नतो भुञानस्यापि, अवकीर्णिभावः तव्रतत्वम् , 'अवकीर्णी क्षतव्रतः' इत्यमरः / न भवतु; स्वन्मुखस्येव मुख्येन्दुत्वात्तद्दर्शनादेव इन्दुदर्शनवतिनां भोजनाधिकारसिद्धः नास्ति च व्रतभङ्ग. दोष इति भावः / एतेन तन्मुखे मुख्येन्दुभ्रमात् भ्रान्तिमदलङ्कारो व्यज्यत इति वस्तुनाऽलंकारभ्वनिः // 76 // उस ( प्लक्षदीप ) में उस ( चन्द्र ) से भिन्न देवताका अनभिज्ञ अर्थात् चन्द्रे तर देवकी भक्ति नहीं करनेवाला ( चन्द्रभक्त ) जो ( आदमी ) सूर्यको बिना देखे सूर्यभक्त के समान चन्द्रमा बिना देखे भोजन नहीं करता है, तुम्हारे मुखके देखनेसे ही अमावस्यामें मी भोजन करते हुय उस चन्द्रभक्त ( व्यक्ति ) का व्रत भङ्ग न होवे। [ तुम्हारा मुख ही चन्द्रमा है, अत एव अमावस्याको उसे देखकर भोजन करने पर भी सूर्यको देखकर भोजन करनेबाले सूर्यभक्त व्यक्ति के समान चन्द्रमाको देखकर ही भोजन करनेवाले चन्द्रभक्तका व्रतभङ्ग नहीं होगा। तुम्हारा मुख साक्षात् चन्द्ररूप है ] // 76 // उत्सर्पिणी न किल तस्य तरङ्गिणी या त्वन्नेत्रयोरहह !! तत्र विपाशि जाता। नीराजनाय नवनीरजराजिरास्तामत्राअसाऽनुरज राजनि राजमाने // 7 // उत्सर्पिणीति / तस्य द्वीपस्य, या विपाट-नाम्नी तरङ्गिणी उत्सर्पिणी उत्सज्य सर्पिणी, उद्धतप्रवाहा इत्यर्थः, न किल, तत्र तस्यां, विपाशि विपाशायां नद्यां, 'विपाशा तु विषाट सियाम्' इत्यमरः / जाता नवा नीरजराजिः पद्मपङ्क्तिः, त्वन्ने. त्रयोः तव चक्षुषोः, नीराजनाय निर्मन्छनाय, आस्तां तिष्ठतु, अहह !! इत्यद्भुते; विपाशायाम उत्कटतरङ्गाभावात् पद्मानि सदा जायन्ते, अतः तव अतिनीराजनं सन्ततं भविष्यति इति भावः; अत एव राजमाने दीप्यमाने, अत्र अस्मिन् मेधाति. थिनाम्नि, राजनि अअसा द्रुतम् , 'नाक झटित्यासाऽह्वाय द्राङ्मङ्घसपदि द्रुतम्' इत्यमरः / अनुरज अनुरज्यस्व, रजेभीवादिकालोटि सिप'रब्जेश्च' इत्युपधानकारस्य लोपः // 77 // उस ( प्लक्षद्वीप ) की जो ( 'विपाश' नामकी नदी, वर्षाकालमें भी) तटको भङ्ग करने वाली नहीं है, यह आश्चर्य है। उस 'विपाश' नदीमें उत्पन्न नवीन नीलकमलपंक्ति तुम्हारे नेत्रद्वयके नीराजन ( आरती करने ) के लिये होवे, इस शोभमान ( मेधातिथि नामक ) राजामें शीघ्र ( या स्वयं या सत्य ) अनुराग करो। [ 'विपाश् नदी अन्य स्थानों में तटोंको तोड़ती है किन्तु इस राजा के द्वीपमें नहीं, अतः वहाँपर उत्पन्न सरस कमलपंक्ति स्थिर
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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