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________________ 44 नैषधमहाकाव्यम् / मरुत् किमयापि न तासु' शिक्षते वितत्य वात्यामयचक्रचंक्रमान् / / 7 / / अचीकरदिति / नळमार पथा भवति तथा हपेन प्रयोज्येन का निभातपत्रस्य सलत्यले भषःप्रदेशे 'अधः स्वरूपयोरबी तसमित्यमरः। या भ्रमीमण्डळगतीरची. करदकारितवान् , करोवणों घड। तासु भ्रमीषु विषये मस्त अद्यापि वातानां समूहो वास्या, 'वातादिभ्यो यः' / बत्र तह्ममयो अच्यन्ते, तन्मयान् तद्रूपान् चक्रचंक्रमान् मण्डलगतीर्षितत्य विस्तीग्यं न शिचते कियाम्पस्पते किमित्युप्रेता। शिक्षितत् तथा सोऽपि गतिं कुर्यादित्पर्यः। वायोरप्पसम्मविता गतीरचीकरदिति भावः // 73 // ___नख्ने अपने छपके नीचे घोड़ेसे जिन सुन्दर मण्डलियोंको कराया, वायु भाव भी वायु-समारूप गोलाकार भ्रमणों को विस्तृतकर उन मण्डलियोंके विषयमें नहीं सीखतारे क्या ? अर्थात बहुत दिन बीत जानेपर भाष मो वायु पश्वकृत उन मण्डलियोंको सोखने. का सम्पास कर हो रहा है, तथापि यथार्थतः इन्हें नहीं सीख सका है। [प्रीष्म ऋतुमें गोलाकार बढ़ते हुए वायु-समूह (बवंडर ) को यहाँ घोड़ेके मण्डलाकार चक्करके सीखने. की उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 73 / / विवेश गत्वा म विलासकाननं ततः क्षणात् भोणिपतिकृतीच्छया। प्रवालरागच्छुरितं सुषुप्पया हरिचनच्छायमिवाम्मसां निधिम् / / 74 / / विवेशेति / ततः स चोणीपतिः पणाद्या प्रतीच्छया सन्तोषकाडया प्रवासाः पञ्चवाः मन्पत्र प्रवाठाः विद्रमाः 'प्रवाळो वकीरण्डे विद्रमे नवपल्लव' इत्यमरः / तेषां रागेणारुण्येन छुरितं रूषितं धनच्छायं सान्द्रानातपमन्यत्र मेघकान्ति 'छाया खनासपे काम्ताविति विश्वः / विलासकाननं क्रीडावनम् अन्यत्र बवयोरभेदात् बिलासकानां बिळेशयानां पणाम आननं प्राणनं सुषुप्सया स्वप्तुमिच्छया हरि. विष्णुरम्भसानिधिमन्धिमिव विवेश // 74 // तदनन्तर राजा नह नवपस्लवोंको काभिमासे युक्त तथा सघन छायावाले कोडोपवनको जाकर शीघ्र धैर्यकी इच्छासे ( उस विलास वनमें मुझे धैर्य प्राप्त होगा, इस ममि. लाषासे) उस प्रकार प्रविष्ट हए, जिस प्रकार विष्णु भगवान् विद्रमकी लालिमासे मिश्रित तथा स्वयं मेधको समान शोमावाले, क्षीरसमुद्रको प्राप्तकर शीघ्र सोनेकी इच्छासे प्रवेश करते है, ( भयग-बिस प्रकार सिंह पल्लवों की कालिमासे युक्त सघन छायावाले वनको प्राप्त कर शीघ्र सोनेकी इच्छासे प्रवेश करता है ) // 7 // वनान्तपर्यन्तमुपेत्य सस्पृहं क्रमेण तस्मिन्नवतीर्णदक्पथे। भ्यनिष्क रः पुरौकमामनुन नबन्धु समाज बन्धुभिः / / 74 / / वनान्तेति / अनुवबन्धुसमाजबन्धुभिः स्नेहादनुगच्छद्वन्धुसङ्घसशरित्यर्थः। मत एवोपमालङ्कारः। पुरोकसां दृष्टिप्रकरैष्टिसमूहैः कर्तृभिर्वनान्तपर्यन्तं काममो. 1. 'ताः मुशिक्षते' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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