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________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / हे स्वर्ण-केतकीके समान ( गौर वर्ण) शरीरवाली (दमयन्ती) ! उस कुशद्वीपमें ( समुद्रमथनके समय ) सर्पराजको सैकड़ों बार लपेट कर घर्षण करनेसे उत्पन्न, 'चट्टानोंकी रचनाके परम्पराओंसे सोपान (सीढ़ी ) के समान शोभित शरीरवाला (सीढ़ीके समान सुन्दर ) मन्दराचल मानो तुम्हारे चढ़ने के लिए तैयार है [ मन्दराचलमें वासुकिको सैकड़ों बार लपेटकर समुद्रमथन किया गया था, उसके द्वारा घिसनेसे उस मन्दराचलमें पड़े हुए चिह्न चट्टानों से बनाई हुई सीढ़ोके समान मालूम पड़ते हैं, और उनके द्वारा ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो वह तुम्हें अपने ऊपर चढ़ाने के लिये तैयार हो ] / / 61 // मन्था नगः स भुजगप्रभुवेष्टघृष्टिलेखाचलद्धवलनिर्झरवारिधारः / त्वन्नेत्रयोः स्वभरयन्त्रितशीर्षशेषशेषाङ्गवेष्टिततनुभ्रममातनोतु // 6 // मन्थेति / भुजगप्रभोः वासुकेः, वेष्टः वेष्टनैः, या घृष्टिलेखाः घर्षणमार्गाः घर्षण. जन्यवलयाकाररेखा इति यावत् , तासु चलन्त्यः प्रवहन्त्यः, धवलाः निर्झरवारि. धारा यस्य तादृशः, सः प्रसिद्धः, मन्थाः। मन्थनदण्डः, 'वैशाखमन्थमन्थानमन्थानो मन्थदण्डके' इत्यमरः नगोऽद्रिः मन्दराद्रिरित्ययः, स्वन्नेत्रयोः तव चक्षुषोः स्वस्य मन्दरस्यैव, भरेण भारेण, यन्त्रितानि कुञ्चितानि शीर्षाणि यस्य तस्य शेषस्य अनन्तस्य भूभारं बहतः शेषाहेरित्यर्थः, शेषाङ्गेन अवशिष्टकायेन, वेष्टिता तनुः शरीरं यस्य स इति भ्रमम् आतनोतु भ्रान्ति जनयतु; सो हि शिरसि कामतोऽङ्गं स्वाङ्गेन वेष्टयतीति प्रसिद्धिः, शेषस्य शुभ्राङ्गतया वारिधाराणाञ्च धवलत्वात् लेखासु बलयितत्वाच्च भ्रमः सम्भाव्यते इति भावः / अत्र कविसम्मतसादृश्यमूलभ्रान्तिवर्णनात् भ्रान्तिमदलङ्कारः // 62 // हे सुन्दरि ( दमयन्ति ) ! सर्पराज (. वासुकि) के लपेटनेसे बनायी गयी घिसनेकी रेखाओंसे गिरती हुई स्वच्छ झरनोंके पानीकी धारावाला मथनी वह पर्वत अर्थात् मन्दराचल तुम्हारे नेत्रोंको-'अपने (मन्दराचलके) बोझ से दबे हुए मस्तकोंवाले शेषनागके अवशिष्ट ( बाकी) शरीरसे लिपटे हुए शरीरवाला यह है' ऐसा भ्रम करे। [सर्पके मस्तकको दबाने पर वह बाकी शरीरसे दबाने वालेके शरीरको लपेट लेता है, ऐसी उसकी प्रकृति होती है / मन्दराचलमें सर्पराज को लपेटकर समुद्रका मथन किया गया था, उस समय सर्पराजके लिपटने के स्थानों में घिसनेसे चिह्न ( गढ़े ) पड़ गये उनसे बहती हुई झरनोंकी स्वच्छ जलधाराको देखकर तुम्हें ऐसा भ्रम होगा कि सर्पराजने मन्दराचल के द्वारा अपना मस्तक दबानेसे अपने अवशिष्ट शरीरसे उस मन्दराचलको लपेट लिया है ] / / 62 // एतेन ते स्तनयुगेन सुरेभकुम्भौ पाणिद्वयेन दिविषद्रुमपल्लवानि / आस्येन स स्मरतु नीरधिमन्थनोत्थं स्वच्छन्दमिन्दुमपि सुन्दरिमन्दराद्रिः। एतेनेति / हे सुन्दरि ! स मन्दरादिः, एतेनेति पुरोवर्तिनिर्देशः, अस्य च तृती. यान्तपदत्रयेण सम्बन्धः, ते तव, स्तनयुगेन सुरेभस्य ऐरावतस्य, कुम्भौ, पाणिद्वयेन
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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