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________________ 648 नैषधमहाकाव्यम् / हो भी जाय तो इस बन्दि-समूहके वागाडम्बरके ) अर्थको पुनरुक्ति करनेवाले ( उन मेरे पदों ) का कोई प्रयोजन भी नहीं है। [इस राजाकी निरन्तर स्तुति करनेवाले बन्दिसमूहके वागाडम्बरसे 'शब्द गुणवाला' आकाश इतना ठसा-ठस भर गया है कि मेरे वचनों के उत्पन्न होनेका स्थान ही नहीं है, पक्षा०-जन-समूहादिसे ठसाठस भरे हुए स्थानमें पैर रखनेका भी स्थान नहीं है। तथा मैं जो कुछ कहूँगी वह सब इसके बन्दिसमूहके द्वारा वर्णित होनेसे पुनरुक्त हो जायेगा अत एव उसमें कुछ कहने की आवश्यकता मी नहीं है / इस राजाके बन्दि-समूह जो कुछ वर्णन कर रहे हैं, वही मुझे भी सम्मत है, अत एव इसे वरण करो // 36 // नन्वत्र हव्य इति विश्रुतनाम्नि शाकद्वीपप्रशासिनि सुधीषु सुधीभवन्त्याः। एतद्भुजाविरुदवंदिजयाऽनयाऽपि किं रागिराजनिगिराऽजनि नान्तरंते?|| नन्विति / ननु भैमि ! अत्र अस्मिन् , हव्य इति. विश्रुतनाम्नि प्रख्यातनामधेये, शाकद्वीपं प्रशास्तीति तत्प्रशासिनि तत्स्वामिनि, राजनि विषये, सुधीषु विद्वत्सु, सुधीभवन्त्याः विदुषीभवन्त्याः , ते तव, अन्तरम् अन्तरात्मा, अनया श्रयमाणया, एतस्य भुजाविरुदवन्दिभ्यो बाहुप्रशस्तिस्तोतृभ्यः; 'गद्यपद्यमयी राजस्तुतिविरुदमुच्यते' इति; जाता तज्जा तया, गिराऽपि रागि अनुरागवत् , नाजनि नाजनिष्ट किम् ? इति प्रश्नः, जनेः कर्तरि लुङि 'दीपजन-' इत्यादिना विकल्पात् चिण प्रत्ययः, 'चिणो लुक' इति तस्य लुक // 37 // शाकद्वीपका शासन करनेवाले 'हव्य' नामसे प्रसिद्ध इस राजाके विषय में पण्डितों में पण्डिता बनती हुई तुम्हारा हृदय ( पाठा०-"विषयमें तुम्हारा हृदय ) इस (राजा) की भुजाके प्रशंसक बन्दियों के इस वचनसे भी अनुरागी नहीं हुआ क्या ? ( अथवा अनुरागी क्यों नहीं हुआ ? ) अर्थात् अवश्य अनुरागी होना चाहिये // 37 // शाकः शुकच्छदसमच्छविपत्रमालभारी हरिष्यति तरुस्तव तत्र चित्तम् / यत्पल्लवोघपरिरम्भविजृम्भितेन ख्याता जगत्सु हरितो हरितः स्फुरन्ति / / शाक इति तत्र शाकद्वीपे, शुकच्छदसमच्छवीनां कीरपक्षसदृशदीप्तानां, पत्राणां मालां पकिं, भरतीति तन्मालभारी, 'इष्टकेषीकामालानां चिततूलमालभारिषु' इति हस्वः, शाकस्तरुः शाकवृक्षः, 'शेगुन' इति प्रसिद्धवृक्षविशेषः इत्यर्थः, तव चित्तं हरि'ष्यति / हरितो दिशः, शाकतरोः, पल्लवस्य ओघानां राशीनां, परिरम्भविजम्भितेन व्याप्तिमहिम्ना, हरितः हरिद्वर्णाः सत्यः।'हरितः / मृगे ना कनके क्लीवं दिशि स्त्री हरिते विषु' इति विश्वः, जगत्सु ख्याताः हरित इति ख्याताः, स्फुरन्ति प्रथन्ते / दितु हरिच्छब्दप्रवृत्तेः हरितवर्णनिमित्तायाः शाकतरुपखवच्छायाच्छुरणनिमित्तत्वा 1.-'भवन्स्या' इति पाठे 'गिरा' इत्यस्य विशेषणमिदम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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