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________________ एकादशः सर्गः। 637 कान्तिः सन्, शम्भोर्यज्ञोपवीतस्य पदवीं पदं,भजते; यज्ञोपवीतञ्च शुभं प्रन्थिस्थाने पदृसत्रेण रक्तवर्ण भवतीति प्रसिद्धिः सेवासु शम्भोः परिचर्यासु, प्रसितस्तत्परः, 'तत्परे प्रसितासको' इत्यमरः, सितश्रीःशुभ्रकान्तिः, स वासुकिरयमिति पुरोवर्तिनिर्देश वासुकेः सततं शम्भुसेवातत्परतया सम्भोगाद्यसम्भवाषवरणीय इति भावः। __ आलिङ्गनस संसक्त ( लग हुए ) पावेताके स्तनकुङ्कुमस ५दृसूत्रस वाटतके समान लाल वर्ग की कान्तिवाला जो शङ्करजीके यशोपवीतके स्थानको प्राप्त किया है अर्थात् यशोपवीतसा बना हुआ है, शङ्कर जीकी सेवामें तत्पर (पाठा०-प्रसिद्ध ) एवं श्वेत वर्णवी कान्तिवाला वही यह वासुकि है। [यज्ञोपवीत भी श्वेत होता है तथा उसके ग्रन्थि-स्थानमें रक्त पट्टसूत्रसे लालवर्णकी कान्तिवाला होता है। चतुर्वर्णत्वके अधिकारको लेकर देवोंमें भी ब्रहा. शिव, विष्णु तथा अश्विनीकुमार को क्रमशः 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होना' पुराण में वर्णित है, मजीठसे रंगा हुआ या वैसे वर्णका यज्ञोपवीत क्षत्रियके लिये धारण करने का शास्त्रीय विधान होनेसे क्षत्रिय वर्ण ज्ञकर जीका वासुकिको रक्त यज्ञोपवीत रूपमें पहनना उचित ही है / 'सर्वदा शङ्करजी की सेवामें तत्पर रहनेसे यह सम्भोगके योग्य नहीं है। ऐसा सरस्वती देवीने दमयन्तीसे सङ्केत किया ] // 17 // पाणी फणी भजति कङ्कणभूयमैशे सोऽयं मनोहरमणीरमणीयमूर्तिः। कोटीरबन्धनधनुर्गुणयोगपट्टव्यापारपारगममुं भज भूतभत्तुः // 18 // पाणाविति / मनोहरैः मणीभिः रमणीयमूर्तिः सोऽयं फणी वासुकिः, ऐशे ईश. सम्बन्धिनि, पाणौ करे, कङ्कणभूयं कङ्कणत्वं, 'भुवो भावे' इति क्यप, भजति प्राप्नोति; भूतभत्तः महादेवस्य, कोटीरबन्धनं कपर्दबन्धनं, जटाजूटग्रन्थिबन्धनमिति यावत् , धनुषो गुणो मौर्वी,योगपट्टश्व तेषां व्यापारस्य भवनलक्षणस्य, पारगं पारीणं, तत्तत्कार्य कुशलमिति भावः, अमुं वासुकिं, भज वृणीष्व; ताविशेषणे. नास्य वरणायोग्यत्वं सूचितम् / अत्रैकस्य वासुके अनेकेषु कोटीरादिषु क्रमेण वृत्तेः पर्यायभेदः / अथानुभावविशेषाद् योगपद्यसम्भवे तु समुच्चयः // 18 // ___मनोहर मणिया ( नागमणियों ) से रमणीय मूर्तिवाला प्रसिद्ध यह सर्प शङ्करजीके हाथमें कङ्कणभावको प्राप्त करता है अर्थात् कङ्कण बनता है (पाठा०—विशाल यह फणी ( वासुकि नामक सर्प) मनोहर मणियोंसे रमणीय कङ्कणभावको प्राप्त करता है। अथवामनोहर मणियों वाला, बिशाल एवं वह ( प्रसिद्ध ) यह फणी शङ्करजीके हाथमें रमणीय")। शङ्करजीके जटाजूट ( जटासमूह ) बांधने, धनुषकी डोरी तथा योगपट्टके कार्यको पूरा करनेवाले उस ( वासुकि ) को सेवन (वरण ) करो। [ जटाजूटका बन्धनादि व्यापारोपयुक्त वासुकिको बतलाकर सरस्वतीदेवीने वरणके अयोग्य होने का संकेत किया है ] // 18 // धृत्वैकया रसनयाऽमृतमीश्वरेन्दोरप्यन्यया त्वदधरस्य रसं द्विजिह्वः / आस्वादयन् युगपदेष परं विशेषं निर्णेतुमेतदुभयस्य यदि क्षमः स्यात् / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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