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________________ 628 नैषधमहाकाव्यम् / कत्वम् / देवतामिव चेतसि तस्य चिन्तितस्य, वरस्य वोढुर्नलस्य, देवदेयार्थस्य च 'वरो ना रूपजामानोर्देवादेरीप्सिते वृतौ' इति वैजयन्ती। लाभाय प्राप्त्यर्थं, बभाज प्राप, सिषेवे च / अस्मिन् सर्गे वसन्ततिलकं वृत्तं, लक्षणमुक्तम् // 1 // इस ( मनुष्योंके हर्षनाद होने) के बाद भीमराजकुमारी ( दमयन्ती) राजाओं के मुखचन्द्रोंसे विलसित होती हुई प्रसन्नतावाली, प्रेमसे निमेषरहित नेत्रसे देखती हुई चित्तमें ग्रहण किये हुए पति ( नल ) की प्राप्ति के लिये देवताके समान उस सभामें पहुँची। देवता पक्ष में-......( दमयन्ती) ने अपने ( देवताके ) मुख चन्द्रसे विलसित होती हुई प्रसन्नतावाली अर्थात् प्रसन्न मुखचन्द्रवाली ( देवता होने के कारण) निमेष-रहित नेत्रसे स्नेह-पूर्वक देखती हुई देवताकी अभिलषित वरदान पाने के लिये सेवा की // 1 // तनिर्मलावयवभित्तिषु तद्विभूषारत्नेषु च प्रतिफलनिजदेहदम्भात् / दृष्टया परं न हृदयेन न केवलं तैः सर्वात्मनैव सुतनौ युवभिर्ममज्जे // ___तदिति / तैर्युवभिः सुतनौ दमयन्त्यां , दृष्टया परं दृष्टयैव, न केवलं ममज्जे न -मग्नं, भावे लिट् / हृदयेन हृदयेनैवापि, केवलं ममज्जे, किन्तु निर्मलासु अवयव. भित्तिषु गण्डस्थलादिषु, तस्या विभूषारत्नेषु च प्रतिफलतां निजानां देहानां दम्भात् तत्क्षणप्रतिफलितशरीरव्याजात् , 'कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छमकेतवे' इत्यमरः / सर्वात्मना एव सर्वाङ्गेनैव, ममज्जे; दृङ्मनोमज्जनं तावदास्तां किन्तु प्रतिविम्बग्याजेन सर्वाङ्गमज्जनं जातमिति सापहवोत्प्रेक्षा // 2 // युवक (राज-समूह ) सुन्दर शरीर वाली ( दमयन्ती) में केवल दृष्टिसे ही निमग्न नहीं हुए और केवल हृदयसे निमग्न नहीं हुए; किन्तु उस ( दमयन्ती के निर्मल ( अतिगौर वर्ण, कपोल आदि ) अङ्गों में तथा उसके भूषणों के रत्नों में प्रतिबिम्बित अपने शरीरके बहानेसे सम्पूर्ण शरीरसे ही निमग्न हो गये। [युवक राजा लोग उस सुन्दरी दमयन्तीमें केवल दृष्टि या हृदयमात्र से ही आसक्त नहीं हुये, किन्तु उसके निर्मल अङ्गों व भूषण जटितमणियों में प्रतिबिम्बित सम्पूर्ण शरीर के बहाने मानो सम्पूर्ण शरीर ही आसक्त हो गया। दमयन्तीको देखकर सभी युवक सर्वतोभावसे मोहित हो गये, दमयन्तीके निर्मल शरीर एवं भूषणों के मणियों में सबके शरीर प्रतिबिम्बित हो गये ] // 2 // द्यामन्तरा वसुमतीमपि गाधिजन्मा यद्यन्यमेव निरमास्यत नाकलोकम् / चारुः स यादृगभविष्यदभूद्विमानस्तादृक्तदभ्रमवलाकितुमागतानाम्।। धामिति / गाधेर्जन्म यस्य स गाधिजन्मा विश्वामित्रः, 'अवयों बहुव्रीहियधिकरणो जन्माधुत्तरपदः' इति वामनः / द्यां वसुमतीमपि अन्तरा स्वर्गभूम्योः अन्त राले, 'अन्तराऽन्तरेण युक्ते' इति द्वितीया अन्यमेव नाकलोकं स्वर्गान्तरं, निरमास्यत यदि निर्मिमीते चेत् , 'माङः क्रियातिपत्तौ लुङ' स नाकलोकः, याहक चारुः अभवि.. ज्यत् भवेत् , 'पूर्ववल्लुङ् तत् स्वयंवरसभोपरिस्थम्, अभ्रम् अन्तरिक्षं कर्त, अवलो
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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