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________________ दशमः सर्गः। .. 623 .. इस दमयन्तीका वर्णन करते हुए, बृहस्पतिके भी दोनों ओष्ठ तथा कण्ठको पूर्णतया वर्णन करने में असमर्थ होनेसे शिक्षित करनेवाले ( पाठा०-शिक्षित करने के लिए ), कामदेवका यह परिश्रम ( दमयन्ती की रचनारूप परिश्रम ) संसारको छोड़कर मुक्ति पाये हुए लोगों के पश्चात्तापके लिये है। [दमयन्तीके रहने पर संसार में हो मोक्ष है, अत: 'संसारको छोड़कर हमलोग क्यों मुक्त हु.' इस प्रकार के पश्चात्ताप करने के लिए ही दमयन्तीको बनाने का परिश्रम कामदेवने किया है / इस दमयन्ती का पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकनेसे बृहस्पति को मा कामदेव शिक्षा देनेवाला है या शिक्षा देने के लिये कामदेवका उक्त श्रम है ] // आख्यातुमक्षिवजसर्वपीतां भैमी तदेकाङ्गनिखातदक्षु / गाथासुधाश्लेषकलाविलासैरलञ्चकाराननचन्द्रमिन्द्रः // 133 // आख्यातुमिति / अथ इन्द्रः अक्षणां व्रजेन नलरूपधार्यपि निजशक्त्या नेत्रसह. स्रण, सर्वषु अङ्गेषु, पीताम् आदरदृष्टां, भैमी तस्याः, भैम्याः, एकस्मिन्नेवाङ्गे निखाते प्रवेशिते दृशौ येषां तेषु द्विनेत्रेषु मनुष्येषु विषये, आख्यातुं तेभ्यः कथयितुं, सर्व विशेषज्ञो हि अज्ञेषु सविस्तरं कथयतीति भावः, गाथासुधायाः श्लोकामृतस्य, श्लेषकलायाः श्लेषालङ्कारविद्यायाः, विलासैः, अन्यत्र-अमृतसम्पर्केण षोडशभाग. विलासैश्च, आननमेव चन्द्रः तम् अलञ्चकार श्लिष्टार्थेन वक्ष्यमाणश्लोकेन चाकथ. यदित्यर्थः // 133 // ___ इस ( राजाओं के ऐसा ( 10 / 113-132 ) कहने ) के बाद इन्द्रने नलका रूप धारण कर (अपनी विशेष शक्तिके द्वारा) सहस्र नेत्र-समूहसे अच्छी तरह देखकर उस (दमयन्ती) के एक शरीर में गढ़ाये हुए नेत्रोंवाले ( राजाओं ) से कहने के लिए श्लोकरूपी अमृतकी श्लेषकला (अमृतके सम्बन्धसे सोलहवें भाग) के विलासोंसे अपने मुखचन्द्रको अलङकृत किया अर्थात् इन्द्र श्लेषयुक्त मधुर श्लोक बोले-[ दो नेत्र होनेसे दमयन्तीके एक किसो अङ्गको देखनेवाले लोगों की अपेक्षा नल का रूप ग्रहण कर स्वयंवर में आनेपर भी अपनी देवी शक्तिसे सहस्र नेत्रों के द्वारा दमयन्ती के सम्पूर्ण शरीरको अच्छी तरह देखकर उसके विषयमें विशेष ज्ञाता होकर उन सामान्य ज्ञाताओंके कहने के लिये श्लेषपूर्ण अमृततुल्य मधुर श्लोक बोले-इन्द्रने श्लेषालङ्कार युक्त मधुर श्लोक कहे- ] // 133 / / स्मितेन गौरी हरिणी दृशेयं वीणावती सुस्वरकण्ठभासा। हेमैव कायप्रभयाऽङ्गशेषस्तन्वी मतिं कामति मे न काऽपि / / 134 // तमेव श्लोकमाह-स्मितेनेति। इयं भैमी,स्मितेन गौरी गौरीसंज्ञा काचिद्देवाङ्गना, सिता च, 'गौरोऽरुणे सिते पीते' इति वैजयन्ती। मे मतिं क्रामतीत्युत्तरेणान्वयः; एवमत्तरत्रापि दृशा दृकशोभया, हरिणी काचिद्देवाङ्गना, कुरङ्गी च; सुस्वरकण्ठभासा समधुरकण्ठध्वनिसम्पत्या, वीणावती अप्सरोविशेषः, वीणायुक्ता च; कायप्रभया अङ्गाकान्त्या, हेम अप्सरोविशेषः सुवर्णश्च, अनेषु शेषैः अवशिष्टाङ्गः, तन्वी मेनकाऽपि
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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