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________________ 620 नैषधमहाकाव्यम् / असम्बन्धोक्तरतिशयोतिस्तत्सापेक्षा चेयम् अनङ्गसृष्टित्वोस्प्रेक्षेति सङ्करः // 126 // ___ ब्रह्माके हाथोंको नमस्कार है, ( जिन्होंने इस दमयन्ती को रचा है ), अथवा नमस्कार नहीं है, ( क्योंकि ) इस [ ( ब्रह्मा ) की बुद्धिने भी इस शिल्प का स्पर्श नहीं किया है फिर हार्थोंने कहांसे स्पर्श किया ? ( ब्रह्मा ऐसे सुन्दर रूपको बनानेकी बुद्धि से भी कल्पना नहीं कर सकते तो हाथसे बनाना तो असम्भव ही है। अथ च निरवयव बुद्धि भी जिसका स्पर्श नहीं कर सकती, उसका स्पर्श सावयव हाथ कैसे कर सकते हैं ?, और स्थूलबुद्धि वैदिक ब्रह्माकी बुद्धि का ऐसी सुन्दरी बनाने का विचार करना असम्भव ही है)। क्योंकि स्पर्शसे यह शिल्प धब्बोंसे युक्त हो जाता अतः अनङ्ग होने से कामदेवके योग्य यह शिल्प है, अर्थात् अगर हित कामदेवने ही इसे बनाया है, यही कारण है कि इसमें किसी अङ्गका स्पर्श नहीं होनेसे लेशमात्र भी कहीं पर धब्बा ( कोई चिह्न ) नहीं है। इस कारण इस सुन्दर रूपको बनानेवाले कामदेवको ही नमस्कार है / दमयन्तीका शरीर सर्वत्र समान रूपसे सुन्दर है ] // इमा न मृद्वीमसृजत् कराभ्यां वेधाः कुशाध्यासनकर्कशाभ्याम् / शृङ्गारधारां मनसा न शान्ति-विश्रान्तिधन्वाध्वमहीरुहेण / / 127 // __ कुतोऽपि हेतोर्न वैधसृष्टिरियमित्याह, इमामिति / वेधाः स्रष्टा, मृवी कोमला. ङ्गीम्, इमां कुशाध्यासनेन कुशाक्रमणेन, कर्कशाभ्यां कराभ्यां नासृजत् , अयोग्य स्वादिति भावः। तथा शृङ्गारधारां शृङ्गाररसवाहिनीम् इमां, शान्तेः विषयविरतेः, विश्रान्त्ये धन्वाध्वमहीरुहो मरुमार्गवृक्षः, 'समानौ मरुधन्वानौ' इत्यमरः। तेन विविक्तेन विषयरसानभिज्ञेन, मनसाऽपि, नासृजत् इति पूर्वानुषङ्गः, स्वयमशृङ्गा. रिणः शृङ्गारिणीसृष्टयशक्तेरिति भावः / अत्र विधिकरणमनासम्बन्धाभावेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिसंसृष्टिः // 127 // ब्रह्माने इस सुकुमारी ( दमयन्ती ) को कुशधारण करनेसे कर्कश हार्थोसे नहीं रचा है और शृङ्गार-प्रवाहरूपिणी इस ( दमयन्ती ) को शान्ति (विषय-विरक्ति ) की विश्रान्तिके लिये मरुमार्गस्थ वृक्षरूप ( अत्यन्त नीरस एवं कठोर ) मनसे भी नहीं रचा है। [ कर्कश हाथोंसे सुकुमारो की तथा विषयविरक्त एवं नीरस मनसे शृङ्गार प्रवाहवाली दमयन्ती ब्रह्मा की रचना नहीं हो सकती है ] // 127 // / उल्लास्य धातुस्तुलिता करेण श्रोणौ किमेषा स्तनयोर्गुरुर्वा / तेनान्तरालैस्त्रिभिरङ्गुलीनामुदीतमध्यत्रिबलीविलासा // 128 // उल्लास्येति / एषा दमयन्ती, श्रोणी नितम्बदेशे, गुरुः गुर्वी, 'वोतो गुणवचनात्', इति विकल्पात् ङीषभावः, स्तनयोः कुचयोः, वा गुरुः ? इति संशय इति शेषः, इति. शब्दस्य गम्यमानार्थत्वादप्रयोगः, धातुः करेण उत्तानपाणिना, उल्लास्य नीवीम् अपसार्य, उदरे गृहीत्वा उन्नमय्येत्यर्थः, तुलिता समं धारितेत्युत्प्रेक्षा; तेन तुलनेन, अङ्गुलीनां चतसृणां त्रिभिः अन्तरालैः अभ्यन्तरैः, उदीतः उद्गतः, इण् गताविति
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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