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________________ दशमः सर्गः। 617 चेति भावः / भैमीहगम्बुरुहतारतम्यकथनाय धात्रा स्थापितमलिमिथुनमिव भाति कनीनिकायुग्ममित्युत्प्रेक्षा // 121 // 'लोग कमलों की अपेक्षा इस ( दमयन्ती ) के नेत्रों की विशेषताको उसके गुणोंको जानने वाले भ्रमरदम्पतीसे पूछे' मानो इसी लिये ब्रह्माने तारका ( नेत्रोंकी पुतलियां) रूप भ्रमरमिथुन ( भ्रमरी-भ्रमर ) की मध्यस्थता ( मध्यमें ठहरना; पक्षा०-साक्षी बनना ) को इस नेत्रद्वयमें किया। [ जो जिसके गुणको जानता है तथा मध्यस्थ अर्थात् किसी का पक्षपात नहीं करनेवाला होता है, वही उसके गुणको ठीक-ठीक बतला सकता है, दमयन्तीके नेत्र द्वयमें पुतलियां नहीं हैं, किन्तु वह भ्रमर मिथुन है और इस भ्रमर मिथुनने हीन गुणवाले नीलकमलको छोड़कर उत्तम गुणवाले इन नेत्रों का आश्रय किया है, इसीसे स्पष्ट है कि कमल श्रेष्ठ हैं या दमयन्ती के नेत्र ? / दमयन्तीके नेत्र नीलकमलसे भी सुन्दर हैं ] / / ब्यधत्त लौधौ रतिकामयोस्तद्-भक्तं वयोऽस्या हृदि वासभाजोः। / तदग्रजाग्रत्पृथुशातकुम्भ-कुम्भौ न सम्म्भावयति स्तनौ कः ? // 122 // व्यधत्तेति / तयोः रतिकामयोः, भक्तं विधेयं, वयः यौवनं कत्त, अस्याः भैम्याः, हृदि वासभाजोः निवसतोः, रतिकामयोः, कृते इति शेषः, सौधौ प्रसादौ, व्यधत निर्ममे, अन्यथा तयोस्तत्र निवासायोग्यत्वमिति भावः; यस्मात् हेतोः को जनः, स्तनौ, अस्या इति पूर्वानुषङ्गः, तयोः सौधयोः, अग्रे जानती प्रकाशमानौ, पृथू पी. वरौ च, शातकुम्भकुम्भौ कनककलशो, न सम्भावयति ? न वितर्कयति ? सर्वोऽप्ये. वमुत्प्रेक्षत एवेत्यर्थः // 122 // ____ इस ( दमयन्ती ) के हृदयमें निवास करनेवाले रति तथा कामदेवके भक्त युवावस्थाने दो महल बना दिये हैं, ( अत एव ) कौन मनुष्य उन (दोनां महलों ) के ऊपर प्रकाशमान विशाल दो सुवर्ण कलश ( दमयन्तोके ) दोनों स्तनोंको नहीं मानता ? अर्थात् सभो मनुष्य हृदयस्थ रति-कामके महलोंके ऊपर शोभमान दो विशाल सुवर्ण कलशोंके समान दमयन्तीके दोनों स्तनों को मानते हैं / [ दमयन्ती सुवर्णकलशके समान गौर वर्ण तथा विशाल स्तनोंवाली तथा सर्वदा रति-कामदेवसे पूर्ण है ] // 122 // अस्या भुजाभ्यां विजितात् बिसात् किं पृथक करोऽगृह्यत तत्प्रसूनम? / इहेक्ष्यते तन्न गृहं श्रियः कैर्न गीयते वा कर एव लोकैः ? // 123 // अस्या इति / अस्याः, भैम्याः, भुजाभ्यां विजेतृभ्यामिति भावः, विजितात् बिसात् मृणालात् , पृथक प्रत्येकमेव, तत्प्रसून, बिसप्रसून, पद्ममेवेत्यर्थः, करो बलिहस्तश्च, अगृह्यत किम् ? गृहीतं किम् ? इत्युत्प्रेक्षा; 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः, जेतुर्जितात् करग्रहणमेव तत्करस्य पद्मत्वञ्चोचितमिति भावः / तथा हि, इहा. प्या भुजयोः, तत् करत्वेन गृहीतं पद्म, कैलॊकैर्जनैः, श्रियो लक्ष्म्याः शोभायाश्च, गृहम आलयः, नेच्यते ? वा अथवा, कर एव करशब्देनव, न गीयते ? नोच्यते ?
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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