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________________ 614 नैषधमहाकाव्यम् / तत्सहशगुणवत्वादिस्यर्थः, पुष्पेऽनङ्गचापत्वव्यवहारस्तु गौण एवेति भावः / उपमा। अनापि स्फुटमित्यनुषङ्गादुत्प्रेक्षेति द्वयोनिरपेक्षत्वात् संसृष्टिः // 116 // दमयन्तीका मुख ही साक्षात् (निकटस्थ होनेसे प्रत्यक्ष, या हमलोगोंका भोग्य, या मुख्य उपमानभूत ) सुधांशु अर्थात् चन्द्रमा (या अमृतपूर्ण चन्द्रमा) है; आकाशका मुख तो लक्षणासे बोध्य शशाङ्क ( चन्द्रमा, पक्षा०-सकलङ्क) है। इस ( दमयन्ती ) के दोनों भौहें मुख्य (प्रधान, मुखमें होनेवाला, या अभिधासे बोध्य ) कामधनुष है; पुष्प तो उस (भ्रद्वय ) के गुण-मात्र ( केवल कामोद्दीपकत्वादि गुण, या भ्रदयगत वक्रत्व और उन्मादकत्व रूप दो गुणोंमें-से केवल उन्मादकत्व गुण, केवल मौवीं अर्थात् धनुषकी डोरी होनेसे या गोणी लक्षणासे-अभिधा शक्तिसे नहीं) कामधनुष है। [ दमयन्तीका मुख सदा गोलाकार, निष्कलङ्क, अधरामृतसे संयुक्त, उन्मादक आदि अनेक गुणों से युक्त होनेसे साक्षात् अर्थात् प्रत्यक्ष दृश्यमान (या समीपस्थ हम कामिजनोंसे उपभोग्य ) सुधांशु ( अमृतपूर्ण कान्तिवाला अभिधावृत्तिसे बोध्य चन्द्रमा) है, स्वर्गका मुख चन्द्रमा तो निश्चित रूपसे लाक्षणिक ( लक्षणा वृत्तिसे बोध्य अर्थात् अवास्तविक या कलङ्कयुक्त) है; अतएव दमयन्तीमुख ही प्रधान तथा उपमानभूत चन्द्रमा है और आकाशस्थ चन्द्रमा अप्रधान उपमेयभूत है। इसी प्रकार दमयन्ती के दोनों भौहें मुख्य अर्थात् अभिधावृत्तिसे बोध्य होनेसे प्रधान ( या मुखभव अर्थात् मुखमें होनेवाले ) कामधनुष हैं और पुष्पको जो कामधनुष कहा जाता है वह तो उन दोनों भौहोंमें जो गुण ( टेढ़ापन तथा मादकपन या डोरी होना ), उसके व्यवहारसे कहा जाता है, अतः गौणीवृत्तिसे है, लक्षणावृत्ति तथा गौणी त्तिकी अपेक्षा अभिधावृत्तिसे बोध्य पदार्थकी प्रधानता होनेसे दमयन्तीके दोनों भौहें ही मुख्य कामधनुष है पुष्प तो गौणीवृत्तिसे बोध्य होनेसे अप्रधान कामधनुष है वा उसकी डोरी होनेसे कामधनुष है / विशेष अर्थकी कल्पना 'प्रकाश' आदि संस्कृत टीकाओंमें देख लेनी चाहिये, विस्तारभय तथा क्लिष्टकल्पनामात्र होनेसे उन्हें यहां नहीं लिखा गया है ] / / . लक्ष्ये धृतं कुण्डलिके सुदत्या ताटङ्कयुग्मं स्मरधन्विने किम् ? | सब्यापसव्यं विशिखा विसृष्टास्तेनैतयोर्यान्ति किमन्तरेण ? // 117 // लक्ष्य इति / सुदत्या भैम्या, ताटङ्कयोः कर्णभूषणयोः, युग्मं स्मर एव धन्वी, ब्राह्मणादित्वादिनिः, तस्मै, तादर्थं चतुर्थी, लच्ये शरव्यभूते, कुण्डल्यावेव कुण्डलिके चक्रे, धृतं किम् ? ताटङ्कयुग्ममेव शरव्यचक्रत्वेन धृतवती किम् ? इत्युप्रेक्षा / अत एव तेन स्मरधन्विना, सव्यम् अपसव्यञ्च यथा तथा विसृष्टाः विमुक्ताः, विशिखाः बाणाः, एतयोः शरव्यचक्रयोः, अन्तरेण यान्ति प्रसरन्ति किम् ? इत्युत्प्रेक्षा सापेक्षस्वात् सङ्करः / सव्यसाचिनो धानुष्काः शरव्यद्वये शरान् मुञ्चन्ति इति प्रसिद्धिः / भ्रूचापयोजिताः कटाक्षबाणाः कर्णताटङ्ककुण्डलाभ्यन्तरेण निर्यान्तीति भावः // 117 // सुन्दर दाँतोंवाली दमयन्तीने दो ताटङ्क ( कर्णभूषण-विशेष ) का रूप, कामदेवरूपी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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