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________________ 612 नैषधमहाकाव्यम् / निर्वयं, भूमिनाथैः राजभिः, मुदा हर्षेण हेतुना, विह्वलचित्तभावात् व्यग्रचित्तस्वा. द्धेतोः, इदं वक्ष्यमाणं, खण्डाक्षरम् , भोक्तवर्णम् अत एव जिह्मजिई कुण्ठजिई यथा तथा, अवादि उक्तम् / कर्मणि लुङ / / 112 // इसके बाद स्वयंवराङ्गनमें आयी हुई दमयन्तीको जानकर राजाओंने चित्तकी व्याकुलतासे पूर्णतया नहीं कहनेसे कुटिल जिह्वायुक्त हो हर्ष से यह कहा-[ दमयन्तीके स्वयंवरमें आते ही कामपरक्श राजालोग पूर्णतया कुछ कहने में अशक्त होनेपर भी हर्षसे कहने लगे] // 112 // रम्भादिलोभात् कूतकर्मभिर्भूः शून्यैव मा भूत् सुरभूमिपान्दैः। इत्येतयाऽलोपि दिवोऽपि पुंसां वैमत्यमत्यप्सरसा रसायाम् // 113 // - अथ विंशतिश्लोक्या वागारम्भानेव वर्णयति-रम्भेत्यादि / रम्भादिषु अप्सरःसु, लोभात् कृतं कर्म यागादि यस्तैः, सुरभूमिपान्थैः स्वर्लोकपथिकैः, 'पथो ना नित्यम्' इति नाप्रत्ययः, भूरेव शून्या मा भूदिति हेतोः, अतिक्रान्ताः सौन्दर्यादिना अप्सरसो यया सा तया अत्यप्सरसा, एतया भैम्या, दिवः पुंसामपि देवानाम् अपि, रसायां भूलोके, वैमत्यं वैराग्यम् , अलोपि लुप्तम् इव, इत्युत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयो. गात् गम्या। लुपेः कर्मणि लुङ, अत्यप्सरसः भैम्याः सौन्दर्यात् स्वर्लोकम् अति छेकानुप्रासः, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रासः, तयोः पूर्वोक्तोत्प्रेक्षायाश्च संसृष्टिः // 113 // रम्भा आदि ( अप्सराओ को पाने ) के लोभसे कर्म ( अग्निष्टोमादि यज्ञ ) करनेवाले स्वर्गपथिकों (स्वर्गाभिलाषिओं) से भूमि (मृत्युलोक ) ही सूना न हो जाय' इस वास्ते अप्सराओंको अतिक्रमण करनेवाली अर्थात् अप्सराओंसे अविक सुन्दरी इस ( दमयन्ती) ने स्वर्गके पुरुषों ( इन्द्रादि ) के भूमि ( मृयुलोका) में विपरीत विचार ( अनिच्छा ) को नष्ट कर दिया है। [ स्वर्ग में भी ऐसो सुन्दरियों के न होने से इन्द्रादि भो स्वर्गको छोड़कर भूमिको स्वर्गसे उत्तम मानकर यहां आये हैं और रम्भादि अप्सराओं के लोमसे ज्योतिष्टो. मादि यज्ञकर स्वर्ग पाने के इच्छुकोंसे भूमि सूनी नहीं हुई है ] // 113 // रूपं यदाकर्ण्य जनाननेभ्यस्यत्तदिगन्ता वयमागमाम | सौन्दयेसारादनुभूयमानादस्यास्तदस्माद् बहुना कनीयः / / 114 / / रूपमिति / वयं जनाननेभ्यः यद्पं सौन्दर्यम् , आकर्ण्य तच्च तच असौ दिगन्तश्च, वीप्सायां द्विर्भावः, तस्मात् तस्मात् दिगन्तात् प्राच्यादिदिक्प्रान्तात् , आगमाम भागताः स्मः, गमेलुङि चेरङादेशः, तत् रूपम् , अस्मादनुभूयमानात् , प्रत्यक्षपरिदृश्यमानात् , सौन्दर्यसारात् 'पञ्चमी विभक्त' इति पञ्चमी, बहुना भूम्ना प्रथिम्ना, भावप्रधानो निर्देशः कनीयः अल्पीयः, यादृशं रूपं लोकमुखात् श्रुतं तदपेच्याऽधिकरूपलावण्यं दृश्यते इति भावः / 'युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्' इति विकल्पात् कनादेशः // 114 // . हम लोगों के मुखसे जिस रूपको सुनकर उन उन दिशाओं के अन्तिम भागोंसे आये हैं,
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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