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________________ 608 नैषधमहाकाव्यम् / गर्व, नुदन्ती खण्डयन्ती, कौमुदीमधुरमन्दहासामित्यर्थः, कौमुद्यो हि पद्मविकासने असमर्थाः, एतैः रदांशुवृन्दैस्तु नृपमुखपद्मानि विकासितानि इति भावः, व्यतिरेका. लकारश्च // 103 // . राजाओंके मुखकमलको आनन्दित करनेवाले, मुस्कुरानेके इच्छुक ओष्ठद्वय (या अधर) के हिलानेसे थोड़ा दिखलायी पड़नेवाले दाँतोंके किरणसमूहोंसे चाँदनीके हर्षे ( पाठा०गर्व ) को खण्डित करती हुई [ दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा। अथवा-....... पड़नेवाले दाँतरूप सूर्य-समूहोंसे। इस पक्षमें सूर्य-समूहद्वारा कमलोंको आनन्दित करना तथा चाँदनीके हर्ष ( या गर्व) को नष्ट करना उचित ही है // चाँदनी से भी अधिक सुन्दर मन्दहासवाली दमयन्ती थी] // 103 // प्रत्याभूषाच्छमणिच्छलेन यल्लग्नतन्निश्चल लोकनेत्राम् / हाराग्रजाग्रद्गरुडाश्मरश्मि-पीनाभनाभीकुहरान्धकाराम् // 104 // प्रत्यङ्गेति / पुनः किम्भूताम् ? प्रत्यङ्गं प्रत्यवयवं, ये भूषाच्छमणयः अलङ्कारस्थ. निर्मलरवानि, तेषां छलेन येषु अङ्गेषु लग्नानि तेषु अङ्गेषु निश्चलानि, हर्षपारवश्यादिति भावः, खमकुब्जवत् समासः, लोकनेत्राणि दर्शनोत्सुकजननेत्राणि यस्यास्ता. मिव वस्तुतः नानाविधरनालङ्कारभूषितामिति भावः / अत्र दमयन्तीदर्शनोस्सुकानां नेत्राण्येवैतानि, न तु रत्नानीति सापह्नवोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्म्या। पुनः हाराने जाग्रतः प्रकाशमानस्य,गरुडाश्मनः गरुत्मनस्य,रश्मिभिः पीनाभं सान्द्रप्रभं,नाभी. कुहरान्धकारं यस्यास्ताम् / अत्र मरकतच्छायस्यान्धकारैः साम्योक्तेःसामान्यालङ्कारः। प्रत्येक अङ्गो के भूषणों के निर्मल रत्नों के व्याजसे जहाँ पड़ी वहींपर निश्चलदर्शकनेत्रोंवाली तथा मोतियों के हारके अग्रभागमें देदीप्यमान गारुत्मत मणिकी आभासे परिपुष्ट नाभिरूपी गुफाके अन्धकारवाली ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। [ दमयन्तीके प्रत्येक अङ्गोंपर जहां दृष्टि पड़ती थी-वहीं निश्चल हो जाती थी, उसके प्रत्येक अङ्गके भूषणों में बड़े गये निर्मल रत्न ही मानो दर्शकों के नेत्र हों ऐसा प्रतीत होता था, आशय यह है कि दमयन्तीके प्रत्येक अङ्ग रस्नोंसे जड़े गये भूषणोंसे अलंकृत थे, जो दर्शकोंके निश्चल नेत्रसे प्रतीत हो रहे थे / और हारके अग्रमागमें गारुत्मतमणिके द्वारा दमयन्तीकी गम्भीर नामिका अन्धकार और अधिक बढ़ रहा था दमयन्तीकी नामि अत्यन्त गहरी थी ] // 104 // तद्ौरसारस्मितविस्मितेन्दुःप्रभाशिरःकम्परुचोऽभिनेतुम् / विपाण्डुतामण्डितचामराली-नानामरालीकृतलास्यलीलाम्॥१०५।। तदिति / पुनः किम्भूताम ? तस्याः भैम्याः, गौरसारस्मितेन विशदोत्कृष्टमन्द. हासेन, विस्मितायाः विस्मयाविष्टायाः, इन्दुप्रभायाः चन्द्रिकायाः, शिरस्कम्परुचोs. मिनेतुम् , अनुक मिव; इत्युत्प्रेक्षा; विपाण्डतामण्डिता धावल्यशोभिताः, चामराख्यः चामरपङ्क्तय एव, नाना मराल्यः हस्यः, ताभिः कृता लास्थलीला नृत्यचेष्टा
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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