SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 654
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 585 . दशमः सर्गः। बाल्मीकिने अनेक शाखाओं ( कठ, आश्वलायन आदि) वाली वेदत्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद ) रूप वृक्षपतिवाले कण्ठमार्गसे अक्लेशपूर्वक उस सभाकी प्रशंसा की; जिसकी संस्कृत वाणी ('मानिषाद ....' इस श्लोक रूपमें ) पहले स्वर्गसे पृथ्वीपर अवतीर्ण हुई थी। [लोकमें भी कोई व्यक्ति अनेक शाखाओंसे युक्त वृक्षवाले मार्गसे सुखपर्वक लम्बे मार्गको पार कर लेता है। आदिकवि बाल्मीकि मुनि ने भी उस सभाकी प्रशंसा की। पौराणिक कथा-पहले वाल्मीकि मुनि मध्याह्न समयमें स्नान करने तमसा नदीको जा रहे थे, तब परस्पर में कामासक्त क्रौञ्च पक्षीकी जोड़ीमें से नर (पुरुष) को बाणसे मारते हुर व्याधको देखकर सर्वप्रथम वेदातिरिक्त लौकिक छन्दमें 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादे कमवधीः काममोहितम् // ' श्लोक पढ़ा // 57 // प्राशंसि संसद् गुरुणाऽपि चार्वी चार्वाकतासर्वविदूषकेण / आस्थानपट्टे रसनां यदीयां जानामि वाचामधिदेवतायाः॥५८॥ प्राशंसीति / चार्वी चारुः रम्या, 'वोतो गुणवचनात्' इति ङीप। संसत् सभा, चार्वाकतया चार्वाकसिद्धान्तितया, नास्तिकतया हेतुना इत्यर्थः, सर्वविदूषकेण वेदा. दिसर्वशास्त्रखण्डकेन, गुरुणा बृहस्पतिनाऽपि, प्राशंसि, किमुत अन्यैरिति भावः, नास्तिकप्रतारणार्थ चार्वाकशास्त्रं प्रणीय बृहस्पतिना वेदादिशास्त्रं दूषितमिति प्रसिद्धिः। यदीयां रसनां जिह्वां, वाचामधिदेवतायाः सरस्वत्याः, आस्थानपट्टम् आस्थानपीठं, सिंहासनमित्यर्थः, जानामि, 'आसनान्तरपीठयोः पट्टम्' इति विश्वः / सर्वविदूषकेण वाचस्पतिनाऽपि स्तूयते इति सभाशोभायाः परमोत्कर्ष इति भावः // ___चार्वाकभाव ( नास्तिकता ) से सब ( वेदादि शास्त्र, पक्षा०-पदार्थमात्र ) को विशेषरूपसे दूषित ( खण्डित ) करनेवाले बृहस्पतिने भी सुन्दर उस सभाकी प्रशंसा की, जिसकी जिह्वाको मैं सरस्वती देवीका सिंहासन जानता हूँ अर्थात् जिसकी जिह्वा पर सरस्वती देवी सर्वदा निवास करती हैं। [ सबको दूषित करनेवाले बृहस्पतिने भी : जिस सभाकी प्रशंसा की उस सभाकी शोभामें किसको सन्देह हो सकता है ? / नास्तिकोंको ठगने के लिये बृहस्पतिने सब वेदादिका खण्डन किया है, प्रेसी प्रसिद्धि है ] // 58 // नाकेऽपि दीव्यत्तमदिव्यचाचि वचःस्रगाचार्यकवित् कवियः। दैतेयनीतेः पथि सार्थवाहः काव्यः स काव्येन सभामभाणीत् // 59 / / नाकेऽपीति / यः काव्यः अतिशयेन दीव्यन्त्यः दीव्यत्तमाः देदीप्यमानाः, 'तसिलादिष्वाकृत्वसुचः' इति पुंवद्भावः / दिव्यवाचः संस्कृतवाचः यस्मिन् तादृशे, नाके स्वर्गेऽपि, वचःस्रजां वाग्गुम्फनानाम्, आचार्यकम् आचार्यकत्वं, 'योपधाद्गुरू. पोत्तमाद् वु', तद्वित् कवितामार्गोपदेष्टा, कविः स्वयं कवयिता च, दित्याः अपत्यानि पुमांसो दैतेयाः दैत्याः, दितिशब्दात् 'कृदिकारात्' इति ङीषन्तात् 'स्त्रीभ्यो ढक'
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy