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________________ दशमः सर्गः। 583 ब्रह्मा लाये हैं' ऐसा केतकी पुष्पसे असत्य कहलवाकर झूठा साक्षी दिलवाया ( इसी कारण तबसे केतकीके पुष्पका अपने पूजनमें शिवजीने सर्वथा त्याग कर दिया ), यह पुराणकी कथा जाननी चाहिये // 52 // एकेन पर्यक्षिपदात्मनाऽद्रिं चक्षुर्मुरारेरभवत् परेण / तैर्द्वादशात्मा दशभिस्तु शेषैर्दिशो दशालोकत लोकपूर्णाः // 53 // एकेनेति / द्वादश आत्मानो रूपाणि यस्य स द्वादशात्मा सूर्यः एकेन आत्मना रूपेण, अदि मेरुं, पर्यक्षिपत् प्रदक्षिणीकृतवान् , परेणात्मना, मुरारेविष्णोः, चक्षुर्दक्षिणनेत्रम्, अभवत्, शेषैरवशिष्टैः, दशभिस्तैरात्मभिस्तु, लोकपूर्णाः जनसम्पूर्णाः, दश दिशोऽलोकत आलोकितवान् // 53 // . द्वादशात्मा ( बारह आत्मावाले सूर्य ) एक (आत्मा ) से सुमेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा किये, दूसरे ( आत्मा ) से विष्णुका नेत्र हुए और शेष दश आत्माओंसे लोगों ( स्वयंवर में आये हुए जनसमूहों ) से पूर्ण दशो दिशाओंको देखा [ सूर्यही बारह आत्माएं ये हैंविधाता', मित्र, अर्यमा, वरुण, मित्र, भग, अंशु, पूषा, विवस्वान् , पर्जन्य, त्वष्टा और विष्णु। हरिवंश पुराण, मार्कण्डेय पुराणके काशीखण्ड तथा अन्यान्य शास्त्रों में वर्णित सूर्यके अन्यान्य नाभोंको मत्कृत 'मणिप्रभा' नामक अनुवादयुक्त 'हरिदास सं० सीरीज बनारस' से प्रकाशित अमरकोषके परिशिष्ट में देखना चाहिये ] // 53 // प्रदक्षिणं दैवतहय॑द्रिं सदैव कुर्वन्नपि शर्वरीशः। द्रष्टा महेन्द्रानुजदृष्टिमूल् न प्राप तदर्शनविघ्नतापम् // 54 // प्रदक्षिणमिति / शर्वरीशश्चन्द्रः, दैवतानां हम्य वासगृहम् , अनि मेरु, सदैव प्रदक्षिणं कुर्यन्नपि महेन्द्रानुजस्य उपेन्द्रस्य विष्णोः, दृष्टिमूर्त्या वामनेत्ररूपेण, द्रष्टा सन् तस्य स्वयंवरस्य, दर्शनविघ्नेन यस्तापस्तं न प्राप; चन्द्रस्य स्वयमनागतत्वेऽपि तत्र विष्णोरागतत्वात्तद्वामनयनरूपेणाद्राक्षीदेवेति कुतस्तस्यादर्शनक्लेश इत्यर्थः॥५४॥ देवों के प्रासादरूप पर्वत अर्थात् सुमेरुकी सर्वदा प्रदक्षिणा करते हुए भी निशापति (चन्द्रमा) विष्णु (वामन भगवान् ) के नेत्ररूप होनेसे दमयन्तीके देखने में विघ्न ( दमयन्तीको नहीं देखने ) के दुःखको नहीं पाया। [ वामनरूपी विष्णु भगवान्को नेत्ररूप होनेसे चन्द्रमा यद्यपि सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते रहे, किन्तु स्वयंवरमें विष्णु भगवान्के साक्षात् उपस्थित रहनेसे (1051 ) दमयन्तीको देखने के सुखको पाते रहनेसे मैंने उसके नहीं देखने के दुःखका अनुभव नहीं किया ] // 54 // विलोकमाना वरलोकलक्ष्मी तात्कालिकीमप्सरसो रसोत्काः / जनाम्बुधौ तत्र निजाननानि वितेनुरम्भोरुहकाननानि // 55 // 1. तदुक्तम्-विधातृमित्रार्यमणो वरुणेन्द्रभगांशवः।। पूषा विवस्वान् पर्जन्यस्त्वष्टा विष्णुर्दिनेश्वराः // इति /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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