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________________ नैषधमहाकाव्यम्। व्यवहारों में भी जानने के लिये अभीष्ट ( दमयन्ती प्राप्तिरूप अपने अभीप्सित ) लाभका कोई थोड़ा भी विशेष नहीं पाया। [ आये हुए राजाओंने सोचा था कि 'राजा भीम स्वयंवर में आये हुए जिस राजाका अधिक सस्कार करेंगे उसीके लिए दमयन्ती भी देंगे' अतः इस बातका पता लगानेपर उन्होंने किसी राजाके प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे किये गये सत्कार में थोड़ी भी न्यूनाधिकता नहीं देखी, अतएव, समस्त राजा यही समझते थे कि मुझे ही दमयन्ती मिलेगी; अथवा-गुप्त सत्कार-विशेषसे भीम राजाका अभिप्राय बहुत दुरूह था, अतः किसीको कुछ अनुमान नहीं हो सका कि दमयन्ती अमुक राजाको मिलेगी। राजा भीमने स्वयंवर में आये हुए सब राजाओंका समान रूपसे सत्कार किया ] / अङ्के विदर्भेन्द्रपुरस्य शङ्के न सम्ममौ नैष तथा समाजः। यथा पयोराशिरगस्त्यहस्ते यथा जगद्वा जठरे मुरारेः / / 30 // सर्वेषां राज्ञां कुण्डिननगरे समावेशो जात इत्याह-अङ्क इति / विदभन्द्रपु. रस्य कुण्डिनपुरस्याङ्के अभ्यन्तरे एष समाजोराजसङ्खोऽगस्त्यहस्ते पयोराशिः समुद्रः यथा मुरारेः जठरे जगद्वा यथा तथा न सम्ममौ न सम्मितः इति न, किन्तु तथैव सम्ममावित्यर्थः / शङ्क इत्युत्प्रेक्षायाम् / मुनिहस्तहरिकुत्यौपम्येन अल्पेऽपि पुरे समाजस्य महतः सम्मानोत्प्रेक्षणादुपमोत्प्रेक्षयोः सङ्करः / तेनाधाराधेययोरनानुः रूप्यलक्षणाधिकालङ्कारस्तन्महत्त्वमस्यद्भुतं वस्तु च व्यज्यते // 30 // ___विदर्भराजकी नगरी कुण्डिनपुर में अगस्त्य मुनिके हाथ (चुल्लू ) में समुद्र के समान और विष्णुके उदर में संसारके समान यह राज-समूह नहीं समाया ऐसा नहीं, अपि तु समाया ही / [ स्वयंवर में आये हुए सब राजा विशाल कुण्डिनपुरीमें बड़े आनन्दसे निवास किये ] // 30 // पुरे पथिद्वारगृहाणि तत्र चित्रीकृतान्युत्सववाञ्छयैव / नभोऽपि किर्मीरमकारि तेषां महीभुजामाभरणप्रभाभिः // 31 // पुर इति। तत्र पुरे उत्सववाग्छया विवाहोत्सवाभिलाषेण पन्थानो द्वाराणि गृहाणि च तान्येव चित्रीकृतानि तेषामभ्यागतानां महीभुजामाभरणप्रभाभिः नभो. ऽपि किरिं चित्रमकारि। अपिशब्दात् पथिद्वारगृहाणि च चित्रीकृतानीति किं वाच्यम् ? 'चित्रं किरिकल्माष शबलैताश्च कर्बुरे' इत्यमरः। अत्र समृद्धिमद्वस्तु वर्णनादुदात्तालङ्कारः // 31 // ___ उस नगर में उत्सवकी इच्छासे राजमार्गके द्वारों के घर (अथवा-राजमार्ग, द्वार, तथा घर; अथवा-राजमार्ग के द्वार वाले घर ) चित्रित ( रंग-विरंगी सजावटासे युक्त ) किये ही गये थे ( इसमें आश्चर्य नहीं है, किन्तु ) उन राजाओंके भूषणोंकी कान्तियों ( किरणों ) से आकाश भी ( 'अपि' शब्दसे उक्त राजमार्गके द्वारोंके घर भी) चित्रित कर दिये गये ( यह आश्चर्य है ) // 31 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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