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________________ नवमः सर्गः। 553 व इति / परेऽहनि प्रियं नलमातमुद्धरधियः सन्त्रबुद्धेः अत एव रयात् प्रवाहवेगासनाचोचन्नाव दन्तुरा इत्यर्थः। तैः कपोलपाख्योगण्डभित्योः पुलकैरोमा. तस्वतीः वेतसलतावलीः, "कुमुवनडवेतसेभ्यो ड्मतुप, मादुपधायाश्चे" त्यादिना मकारस्य वकारः / अश्रुणो धारा आनन्दबाष्पप्रवाहान् सृजन्त्या जनयन्त्यास्तस्य भैग्याः यत् यस्मात् कारणात् चरवारः प्रहरा अपि चतुर्याममात्रापीत्यर्थः / साक्षपा स्मरातिभिः स्मरपीडाभिदुःक्षपा दुरतिवाहाभूत् , तत् तस्मादस्यां भैग्यां कृपया कृपयैवेत्यर्थः / विधिना वेधसा अखिलेश सर्वापि रात्रिस्त्रियामा यामत्रयवत्येव कृता / सत्यमिति शेषः / गम्योत्प्रेक्षा // 158 // कल प्रिय ( नल ) को पाने के लिये उत्कण्ठित बुद्धिवाली और कपोल भिात्तपर ऊंचनीच रोमाञ्चोंले बेंतयुक्त नदीरूप अश्रु-धाराओंको बहाती हुई ( नदीमें ऊंचे-नीचे बेंत रहते हैं और कपोलभित्तिमें ऊंचे-नीचे रोमाञ्च हो रहे हैं ) उस दमयन्तीकी वह चार प्रह. रोवाली ( एक ) रात्रि काम-पीडाओंसे कष्टसे क्षीण होगी, अतएव उसपर कृपा करनेवाले ब्रह्माने सम्पूर्ण रात्रिको ( चार प्रहरोंवाली सम्पूर्ण रात्रिकी एक प्रहर घटाकर ) 'त्रियामा' अर्थात् तीन प्रहरवाली कर दिया। [ रात्रि यद्यपि चार प्रहरोंकी होती है, तथापि उसे 'त्रियामा' कहते हैं इसीपर कविकुल शिरोमणि 'श्री हर्ष' ने उत्प्रेक्षा की है कि विरहिणी दमयन्तीके लिए चार प्रहरवाली एक रात्रिको भी व्यतीत करना दुःशक्य जानकर कृपालु ब्रह्माने सम्पूर्ण रात्रिको चार प्रहरके स्थान में तीन प्रहरका बना दिया है। लोकमें भी कोई दयालु व्यक्ति किसी दुखियाके दुःखसे दयार्द्र होकर उसके कठिन कार्यको सरल कर देता है ] // 158 // तदखिलमिह भूतं भूत्यगत्या जगत्या: पतिरभिलपति स्म स्वात्मदूतत्वतत्त्वम् / त्रिभुवनजनयाववृत्तवृत्तान्तसाक्षात् कृतिकृतिषु निरस्तानन्दमिन्द्रादिषु द्राक / / 156 / / तदिति / जगत्याः पृथिव्याः पतिर्नलः इह दमयन्तीसमदं भूतं वृक्षं तदखिलं स्वात्मनः स्वस्य दूतत्वं तत्त्वं दूतस्वरूपं त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनं, "तद्धितार्थे" त्यादिना समाहारे द्विगुः / 'द्विगुरेकवचनं' पात्रादित्वान्न स्त्रीत्वम् / तस्मिन् जनानां यावन्तो वृत्ता यावद्वृत्तं "यावदवधारण" इत्यव्ययीभावः / याव. वृत्तञ्च ते वृत्तान्ताश्च तेषां साक्षात्कृतौ साक्षात्करणे कृतिषु कुशलेविन्द्रादिषु विषये द्राक सपदि निरस्तानन्दं तेषामिष्टविघाताद्विहतसन्तोषं यथा तथा भूतगत्या सत्यभङ्गया / 'युक्त चमादावृते भूतं प्राण्यतीते समे त्रिषु' इत्यमरः। अभिलपति स्म कथितवान् / मालिनीवृत्तम् / “ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः" इति लक्षणात् // 159 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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