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________________ नैषधमहाकाव्यम् / बरवन्यथा भवेत् / कैमुस्यन्यायतः सा स्यामापत्तिरलङक्रिया' // इति / लक्षणात तनोश्छायेवच्छायेत्युपमा छाययोरभेदाध्यवसायादतिशयोक्तिः। एतस्त्रितयोपत्रीव. नेनालयस्वे तनुच्छायताया हेतुस्वोस्प्रेक्षा सङ्कीर्णा, सा च शक इति व्यञ्जकप्रयोगा. द्वाच्येति // 47 // और क्या ? विस ( कामदेव ) के अस्त्रोंसे सन्तप्त पितामह ( ब्रह्मा, पक्षा- अतिशय वृद्ध, या-पिताके भी पिता ) आज मी ( शीतल होनेसे ) कमलका आश्रय करते हैं, वे नल अपने शरीरको छाया (शोमा ) वाले ( या-अपनेसे कम शोमावाले ) उस कामदेवको लांघनेके लिए नहीं समर्थ हो सके, ऐसा मैं मानता हूँ। जिस कामदेवने अतिशय बूढ़े या अपने पिताके पिताको मी ऐसा सन्तप्त कर दिया कि बहुत समयके व्यतीत होनेपर मी वे माज मी सन्तापनिवारक शीतल कमळपर निवास करते हैं, वह काम अपने प्रतिद्वन्दी नलको नहीं सन्तप्त करेगा, यह कैसे सम्भव है ? तथा-- नलका शरीर अत्यधिक सुन्दर है और कामदेव नलके शरीरकी परछाहीं है, अतएव नल अपने शरीर की परछाही रूप कामदेवको नहीं बांध सके, अर्थात् नहीं बीत सके, यह उचित ही है, क्योंकि लोकमें भी प्रबल. तम मी व्यक्ति अपने शरीरकी परछाहीको कदापि नहीं लांघ सकता-स्वशरीरच्छाया सबके लिए मनुलाथ ही रहती है / अथवा-नल अपनेस कम कान्तिवाले कामदेवको नहीं लांघ ( जीत ) सके ? अर्थात् जीत हो लिया ) // 47 / / उरोभुवा कुम्भयुगेन जम्मितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् / त्रपासरिदुर्गमपि प्रतीर्य सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् / / 48 // उरोभुवेति / सा तन्वी भैमी पैव सरित सैव दुर्ग नसम्बन्धि तदपि प्रतीर्य नलस्य हृदयं विवेशेति यत तत्प्रवेशनं यनदोनित्यसम्बन्धात् , वयस्कृतेन नवाप. हारेण नूतननिर्माणेन उरोभुवा तउजन्येन कुम्मयुगेन कुचयुगाख्येनेति भावः, इत्यतिशयोक्तिः ! 'न लोक'स्पादिना कृयोगषष्ठीप्रतिषेधारकरि तृतीया, 'नपुंसके भाव उपसंस्थानमिति पष्ठी तु शेषविवक्षायाम् / जम्मितं जम्भणं किमुस्प्रेक्षा सा चोक्तातिशयोतिमूलेति सङ्करः। दमयन्तीकुचकरमविभ्रमश्रवणामलनापां विहाय तस्यामासक्तचित्तोऽभूदित्यर्थः, तेन मनःसङ्ग उक्तः // 48 // कशाली वह दमयन्ती ( अपनी ) लज्जारूपिणी नदीके उच्चतम प्राकारको पार कर बो नलके हृदयमें प्रविष्ट हो गयी, वह युवावस्थासे किये गये समीप में नये मुक्ताहारसे युक ( या-नवीन उपहार से युक्त) वक्षस्यकपर उत्पन्न ( स्तनरूप ) दो कलशोका प्रभाव था क्या ? / (जिस प्रकार कोई दुर्बल व्यक्ति छातीपर दो कलशको रखकर उनकी सहायतासे नदीको पार कर अभीष्ट स्थानको पहुँच जाता है, उसी प्रकार मानों कशाङ्गी दमयन्ती मी युवावस्थासे सम्पादित नये उपहाररूप ( या-नवीन मोतियोंकी मालावा) कलशाकार विशाल स्तनदयको सहायतासे अपनी (या नसकी ) लज्जारूपिणी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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