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________________ 538 नैषधमहाकाव्यम् / किया, ऐसे अपने दोष) को देखते हुए आप कपटसाक्षी ( असत्य भाषण करनेवाला गवाह ) नहीं होते हो अर्थात तुम निष्कपट कार्यकर्ता ही होते होः क्योंकि सज्जनोंके मनकी शुद्धि (निष्कपटता) आत्मसाक्षिणी रहती है। [ सज्जन व्यक्ति कपटयुक्त व्यवहार करके दूसरेके मालूम नहीं होने पर भी अपने मनमें स्वयं ही लज्जित होते हैं / अतः तुम्हारा मन अपने कर्तव्यपालनसे शुद्ध है तो दूसरे लोगों के निन्दा या उपहास आदि करनेकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ] // 129 / / इतीरिणापृच्छच नलं विदर्भजामपि प्रमातेन खगेन सान्त्वितः / मृदुभाष भगिनी दमस्य स प्रणम्य चित्तेन हरित्पतीन्नृपः // 130 // इतीति / इतीरिणा इत्थंवादिना नलं विदर्भजामपि भैमी चापृच्छयामन्त्र्य प्रया. तेन प्रयाणप्रवृत्तेन खगेन हंसेन सान्वितो बोधितः स नृपश्चित्तेन हरित्पतीनिन्द्रादीन् प्रणम्य मृदुरार्दचित्तः सन् दमस्य भगिनीं बभाषे // 130 // उक्त प्रकार (श्लो० 128-129 ) से कहनेवाला तथा नल और दमयन्तीसे भी पूछकर ( अनुमति लेकर ) गये हुए पक्षी (हंस ) से आश्वासित वह राजा ( नल ) मनसे ( 'अब मेरा कोई कर्तव्य शेष नहीं है, अतएव आपलोग मुझे क्षमा करें। ऐसा मनमें ही कहते हुए ) दिक्पालों को प्रणामकर दयाल होते हुए दमयन्तीसे बोले-॥ 130 // ददेऽपि तुभ्यं कियतीः कदर्थनाः सुरेषु रागप्रसवावकशिनीः / अदम्भदत्येन भजन्तु वा दयां दिशन्तु वा दण्डममी प्रमागसा // 130 // दद इति / हे प्रिये सुरेषु विषये रागप्रसवे अनुरागजनने अवकेशिनीः बन्ध्या असमर्था इत्यर्थः। 'बन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः। कियतीरियत्तारहिता इत्यर्थः / कदर्थनाः कुत्सनाः / अश्लीलप्रयोगानिति यावत् / तुभ्यं केवलं प्रियार्हाय इति भावः / ददेऽपि ददाम्यपि अतिगर्हितमाचरामीत्यर्थः / अपि गर्दायाम् / 'अपि सम्भावनाप्रश्नशकागर्हासमुचये' इति विश्वः / किञ्चैवं सति अमी देवाः अदम्भेना. कपटेन दूत्येन दूतकर्मणा / 'कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे' इत्यमरः / दयां वा भजन्तु आगसा अपराधेन मम दण्डं दण्डनं वा दिशन्तु, इतः परमिमां तु न कदर्थयामीति भावः // 31 // देवोंमें अनुरागको उत्पन्न करने में वन्ध्य अर्थात् निष्फल, तुम्हें भी कितनी ( अधिक परिमाणयुक्त ) पीडा दूँ ? (इन्द्रादि देवोंके विषय में इतना अधिक कहनेपर भी तुममें उनके प्रति अनुरागाङ्कर उत्पन्न नहीं होता, प्रत्युत तुम्हें और मुझे भी पीडा होती है, अतएव अब देवताओमें अनुरागकर उन्हें वरण करनेके लिये कोई भी बात कहकर तुम्हें पीडित नहीं करूँगा), निष्कपट दूतता करनेसे ये ( इन्द्रादिदेव ) मुझपर दया करें अथवा मेरे अपराधों ( कार्यसिद्धि नहीं करनेसे मेरे दोषों ) का दण्ड दें। [ देवलोग निष्कपट दूतकार्य करके भी मेरे असफल होनेपर यदि दया न करके मुझे अपराधी समझकर दण्ड
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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