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________________ 536 नैषधमहाकाव्यम् / मतिर्विषमन्तदेवाह-जनानने कः करमपंयिष्यति न कोऽपीत्यर्थः / कयाधिदेवताप्रस्यायनेऽपि जनप्रत्यायनं दुष्करमिति तात्पर्यार्थः // 125 // ('दमयन्तीके सामने अपने नामको प्रकाशितकर मैंने इन्द्रादि दिक्पालोंका दूतकार्य नहीं किया' इस ) लज्जाके बोझ ( अधिकता ) से यह मेरा हृदय क्यों विदीर्ण हो रहा है ( ऐसा होना उचित नहीं है ) क्योंकि विबुध ( इन्द्रादिदेव, पक्षा०-विशिष्ट ज्ञानवालेपण्डित ) इसकी अर्थात् मेरे हृदयकी शुद्धिको अच्छी तरह जाने / वे देवता प्रकाशमान ( सर्वान्तर्यामी होनेसे स्पष्ट दिखलाई पड़ता हुआ) इस तत्व ( मेरी निष्कपट वृत्ति ) को जानें, लोगों के मुखकर हाथ कौन रखेगा ( लोगों के मुखको कौन बन्द करेगा ? ) अर्थात् कोई नहीं। [ दुनियां के लोग चाहे कुछ कहें सर्वान्तर्यामी देवता मेरो निष्कपट वृत्तिकी जानते हैं अतः मुझे लज्जित एवं दुःखित नहीं होना चाहिये ] // 125 // मम श्रमश्चेतनयानया फली बलीयसाऽलोपि च सैव वेधसा। न वस्तु देवस्वरसाद्विनश्वरं सुरेश्वरोऽपि प्रतिकर्तुमीश्वरः / / 126 / ममेति / मम श्रमो दूत्यप्रयासः अनया चेतनया स्वरूपनिगूहनबुद्धया फली सफलः स्यात् , बलीयसा बलवत्तरेण वेधसा देवेन सा चेतनेवालोपि नाशिता च। तथा हि-दैवस्य स्वरसात् स्वेच्छातो विनश्वरं वस्त्वयं सुरेश्वरः शक्रोऽपि प्रतिक नेश्वरो न शक्त इत्यर्थान्तरन्यासः। ईरशी भवितव्यतेति भावः // 126 // ___ इस चैतन्य ('मैं दूत हूं' ऐसे शान ) से मेरा परिश्रम (दूतकर्म ) सफल है, उस (चेतना) को बलवान् दैवने ही नष्ट कर दिया (देववश मेरा चैतन्य ही नष्ट हो गया, अन्यथा मैं अपना नाम कदापि प्रकाशित नहीं करता, अतः मेरा कोई अपराध नहीं है। क्योंकि ) देवेच्छासे नाशशील पदार्थको देवेन्द्र भी ठीक करनेके लिये समर्थ नहीं है तो मनुष्य होकर मैं कैसे ठीक कर सकता हूँ। [ अतः मुझे अपनेको कर्तव्यभ्रष्ट नहीं मानना चाहिये ] // 126 // इति स्वयं मोहमयोमिनिर्मितं प्रकाशनं शोति नैषधे निजम् / तथा व्यथामग्नतहिषीर्षया दयालुरागाल्लघु हेमहंसराट् // 127 / / - इतीति / इतीत्थं नैषधे नले मोहमयोर्मिणा अज्ञानविलसितेन निर्मितं निजमास्मीयं स्वयं प्रकाशनं स्वस्वरूपप्रकटिनं प्रति शोचति व्यथमाने सति दयालुहेमहं. सराट सुवर्णराजहंसः तथा व्यथामग्नस्य तस्य नलस्योदिधीर्षया उद्धर्तुमिच्छया, धरतेरुत्पूर्वात् समन्तात् स्त्रियामप्रत्यये टाप / लघ क्षिप्रमागादागतः॥ 127 // ___ इस प्रकार ( श्लो० 122-126 ) मोहरूपा महातरङ्गोंसे निर्मित ( अपने नामके) प्रकाशनको नलके सोचते ( उस विषयको लेकर पश्चात्ताप करते ) रहनेपर दयालु सुवर्णमय राजहंस उस प्रकारकी अनिर्वचनीय अर्थात बड़ी पीड़ामें फंसे हुए उस नलका उद्धार करने की इच्छासे शीघ्र आ गया / / 127 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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