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________________ नैषधमहाकाव्यम् / दमयन्तीमें अनुराग वर्णन करनेसे साम, इस सर्गमें "अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते" इत्यादि श्लोकों ( 9 / 39-45) से उन देवोंका अनुग्रह कहनेसे दान, "यदि त्वमुद्वन्धुमना विना नलम्" इत्यादि श्लोकों ( 9 / 46-49 ) से भेदका प्रदर्शन करने के बादभी यहाँसे भेद तथा दण्डका प्रयोग करते हुए दमयन्तीको इन्द्रादिके पक्षमें लानेकी चेष्टा करते हैं-) हे भीरु ! यदि स्वर्गाधीश (इन्द्र) अपने आँगन में स्थित अर्थात् अत्यन्त निकटस्थ कल्पवृक्षसे तुमको कभी याचना करेंगे तो तुम इस ( इन्द्र ) की प्राणेश्वरी (पत्नी) कैसे नहीं होवोगी अर्थात् तुम्हें अवश्य ही इन्द्रकी पत्नी होना पड़ेगा; क्योंकि वह कल्पवृक्ष याचनाको विफल करनेवाला नहीं है। [इन्द्र स्वर्गके पति हैं और उनके आँगनमें ही कल्पवृक्ष है, अतएव तुम्हारे अस्वीकार करनेपर भी यदि इन्द्र चाहेंगे तो कल्पवृक्षसे तुम्हें माँगेंगे और दूसरे की किसी भी याचनाको विफल नहीं करनेवाला वह कल्पवृक्ष अपने स्वामी इन्द्रकी याचनाको कदापि विफल नहीं करेगा और तुम्हें इन्द्र के लिए दे देगा तो तुम्हें इन्द्रकी पत्नी बनना ही पड़ेगा, अतः अच्छा मार्ग यही है कि तुम स्वयं इन्द्रको स्वीकार कर लो ] // 74 / / शिखी विधाय त्वदवाप्तिकामनां स्वयं हुतस्वांशहविः स्वमूर्तिषु / क्रतुं विधत्ते यदि सार्वकामिकं कथं स मिथ्यास्तु विधिस्तु वैदिकः / / शिखीति / शिखि अग्निः त्वदवाप्तिकामनां विधाय स्वमूर्तिषु स्वविग्रहेषु आहवनीयादिषु स्वयमेव हुतं स्वांशं स्वदेवताकं हवियेन सः सार्वकामिकं सर्वकामप्रयोजनकं, "प्रयोजनमि"ति ठक् / क्रतुं विधत्ते यदि तदा स वैदिको वेदावगतो विधिरनुष्ठानं कथं तु मिथ्यास्तु निष्फलः स्यात् / अत्र स्वशब्दत्रयेण क्रमादग्नेरेव कर्तृदेवताहवनीयादिरूपताप्रतिपादनात् कर्मणि प्रमादानवकाशः सूचितः। तस्माद्वेदप्रामाण्यादनलसादसीति सिद्धमिति भावः // 75 // ___ तुम्हें पाने की इच्छाकर अपनी मूर्तियों ( दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्निरूप अग्नित्रय ) में अपने अंशभूत हविष्यको स्वयं हवन करनेवाला अग्नि यदि सार्वकामिक ( सर्वकार्यसाधक ) यज्ञ करेंगे तो वह वैदिक विधि (यज्ञानुष्ठान क्रिया) मिथ्या कैसे होगी ? / [ यहाँपर अग्निको ही यजमान, देवता और आवहनीयका तीन 'स्व' शब्दों द्वारा प्रतिपादन किया गया है। जो अग्निदेव दूसरों के द्वारा किये गये यज्ञका फल उन्हें देकर वैदिक विधिको सत्य करते हैं, तो वे तुम्हें पाने के लिए स्वयं यज्ञ करके अवश्य पा लेंगे, अतः अग्निको पहले स्वेच्छाओंसे तुम स्वीकार कर लो] // 75 // सदा तदाशामधितिष्ठतः करं वरं प्रदातुं वलिताबलादपि / मुनेरगस्त्याद् वृणुने स धर्मराड् यदि त्वदानि भण का तदा गतिः / / सदेति / स धर्मराज्यमः सदा सर्वदा तस्य धर्मराजस्याशां दिशम, दक्षिगाम्धितिष्ठतोऽधिवसतः / अत एव बलादपि वरमेव करं वलिं प्रदानुं वलितात् प्रवृत्ता. दगस्स्यान्मुनेस्त्वदाप्तिं त्वत्प्राप्तिं वृणुते यदि, तदा का गतिः ?.भण / वाक्यार्थः कर्म //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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