SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 577
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषपमहाकाव्यम् / रूपी अग्निमें ( अथवा-तीव्रता (काष्ठादिके अधिक एवं सूखा होनेसे मषिक ज्वाला) सहित अग्निमें ) जीवनको तृणतुल्य कर दूंगी अर्थात् पपकती अग्निमें तृणके समान शीघ्र अलकर मर जाऊंगी। कामदेव तो क्या वस्तु है ? अर्थात् कुछ नहीं, जो (कामदेव) भस्ममात्र अर्थात् भस्मवत् अकिश्चित्कर है अथवा-जो कामदेव भस्म है वह क्या वस्तु है ? अर्थात् अत्यन्त तुच्छ वस्तु है / अथ च-जो 'स्मर' (स्मरणीय-स्मृतिमात्रमें होने योग्यकाममें आने योग्य नहीं अर्थात् मृत) है वह क्या वस्तु है ? अतएव कामदेव भस्मवत् होने से सामान्य व्यक्तिका भी कुछ नहीं कर सकता तो मुझ जैसी सतीका क्या कर सकता है ? // न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः स धर्मचिन्तामणिज्झितो यया / कपाल कोपानलभस्मनः कृते तदेव भस्म स्वकुले स्तृतं तया // 1 // न्यवेशीति / हे सौम्य ! यो धर्माख्यः चिन्तामणिर्जिनेन देवेन अर्हता रत्नत्रितये जैनपरिभाषया सदृष्टिज्ञानवृत्ताख्ये रत्नत्रये न्यवेशि निवेशितः "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि 'धर्म धर्मेश्वरा विदु"रिति तैरुक्तत्वात् / विशेय॑न्तात् कर्मणि लुङ् / स धर्मचिन्तामणिः यया स्त्रिया कलापि हरः तत्कोपानलभस्मनस्तदुपस्य कामस्य कृते, कृत इति तादध्यऽव्ययम् / उडिझतत्यक्तः तया स्त्रिया तदेव भस्म स्वकुले स्तृतं विस्तृतम् / कामाख्यभस्मान्धतया चरित्रत्याधिया स्त्रिया स्वकुलमेव भस्मसात् कृतं भवे. दित्यर्थः / अहो नलकवताया ममा महेन्द्रादिनामग्रहणमपि न कार्यमिति भावः॥ __ जिनेन्द्र ( या बुद्ध ) ने जिस (धर्मरूप चिन्तामणि ) को रत्नत्रय ( तीन रत्नोंसम्यन्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्र रूप तीन रत्नों ) में रखा है; उस धर्मरूपी चिन्तामणिको जिस स्त्रीने कपालधारी ( शिवजी, पक्षा०-कपाल धारण करनेसे अकिञ्चन व्यक्ति-विशेष ) के क्रोधाग्निसे भस्म अर्थात् कामदेव के लिये छोड़ दिया ( कामवशीभूत होकर चरित्रका त्यागकर दिया), उस स्त्रीने अपने वंशमें वही भस्म फैला दिया। [ जिनेन्द्रने सम्यक् चरित्ररूपी धर्मचिन्तामणि तीन रत्नों ( रत्नत्रय ) में गिरा है, ऐसे उत्तम पदार्थको जिसने कपालधारी ( अकिञ्चन भिक्षुक ) के क्रोधाग्निसे भस्म अर्थात् अपने निर्मलकुलको दूपित कर देती है अतः मैं अपने चरित्ररूपी धर्मका त्यागकर कुल में कलह नहीं लगाऊंगी अर्थात् एक बार नलको वरणकर लेनेपर पुनः इन्द्रादिमेंसे किसीको वरण नहीं करूँगी ] // 71 // निपीय पीयूषरसौरसीरसौ गिरः स्वकन्द पहुताशनाहुतीः। * कृतान्तदूतं न तया यथोदितं कृतान्त मेव स्वममन्यतादयम् / / 72 / / निपीयेति / असौ नलः पीयूषरसस्यामृतरसस्य उरसा निर्मिता औरसीः आरमजाः सदृशीरित्यर्थः। "उरसोऽणचे"त्यण्प्रत्ययः। संज्ञाधिकारादभिधेयनियम इति काशिका। स्वकन्दर्पहुताशनस्य निजकामाग्नेराहुतीरुटीपनीगिरो भैमीवाक्यानि
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy