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________________ नवमः सर्गः। 505 ततः किमत आह-तदिति / ततस्मात् औत्सुक्यावय विश्रम्य मे मम दयालुरेषि भव, अपास्मद्गेहे निवासेन मामनुगृहाणेत्यर्थः। अस्तेर्लोटि सिपि "हुसभ्यो हेर्षिः", "बसोरेदारभ्यासलोपवे"येकारः। तनिवासस्य फलमाह-भवन्तं विलो. कत इति भवधिकोकिनी सती दिन निनीषामि, स्वद्विलोकनेन दिनं नेतुमिरछामीत्यर्थः। मदर्शनात् कथं ते कालयापनमित्याशङ्कयाह-स मप्रियो नलः पषिणा दूतहंसेन नखैर्विलिरुप तथैव रूपेणाकारेण समः सरश आख्यायि किल, आण्यातः खलु / ण्यातेः कर्मणि लुछ। चिणो युगागमः। अतस्त्वदर्शनात् दिनं नेष्यामि / सदृशदर्शनादीनां कालविनोदनसाधनस्वादियोगिनामिति प्रागेवोक्तम. नुसन्धेयम् // 66 // ( केवल आजका दिन नल-वरणमें विघ्नस्वरूप हो रहा है ), अतएव आज विश्रामकर दिनको विताना चाहती हूँ। पक्षी अर्थात् राजहंसने नखोंसे लिखकर आपके ही रूपके समान उस मेरे प्रिय ( नल) को बतलाया है, [ अतएव प्रियके समानाकार आपको उस हृदयस्थ प्रियकी बुद्धिले देखने से मुझे पर पुरुष-दर्शनजन्य दोष भी नहीं लगेगा, इस प्रकार आपको देखते रहनेते मेरे प्राणोंको बचाकर आप दयालु बनिये] // 66 / / हशोद्वयी ते विधिनास्ति वञ्चिता मुखेन्दुलक्ष्मी तब यन्न यीझते / असावपि श्वस्तदिमां नलानने विलोक्य साफल्यमुपैतु जन्मनः // 6 // अग्रेह विश्रामे न केवलं ममैव साफल्यं किन्तु तवापित्याह-शोरिति / सौम्य ! विधिना स्रष्टा ते तव शो यो वनितास्ति विफलीकृता वर्तते / यत् यस्मात् तव मुखेन्दुलचमी न वीक्षते स्वमुखस्य स्वचक्षुषा द्रष्टमशक्यत्वादिति भावः। तत्तस्मादसौ ते दुय्यपि श्वः परेऽहनि इमां त्वन्मुखलदमों नलानने विलोक्य उभयनिष्ठत्वात् समानधर्मस्येति भावः / जन्मनः सात्यमुतु / अत्र इते सुरबुद्धया दूतनलमुखलचम्यो देऽप्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिभेद्रः // 67 // तुम्हारी भी दोनों आँख भाग्य ( या ब्रह्मा ) से वञ्चित ( ठगी गयो ) है जो तुम्हारे मुखको शोखाको नहीं देखती हैं, इससे ये आँखें भो नल के मुख में इस शोभाको देखकर जन्म को सफलताको प्राप्त करें। [ कोई भी व्यक्ति अपने मुखको शोमाको अपने नेत्रोंसे नहीं देखता और दर्पण आदिमें भी प्रत्यक्ष शोभाको नहीं देखता, किन्तु उसके प्रतिविम्बको देखता है, अतः यदि तुम आज यहां रहकर विश्राम कर लोगे तो मेरे प्राण बचानेसे परोपकार करनेका पुण्यभागी बनोगे तथा अपने मुखको कान्तिको ही भेरे प्रिय नलके मुख में देखकर अलभ्यलाभ ( क्योंकि ऐसा दूसरे के लिये असम्भव ही है ) होनेसे अपने नेत्रों को भी सफल कर लोगे। इस कारण आज तुम्हें 'एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा' या 'एक पन्थ दो काज' इस नीतिवचनोंका अनुसरणकर यहां रुक जाना चाहिये] // 67 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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