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________________ नेषघमहाकाव्यम् / विरह एवेति ज्ञापते, स्वप्नज्ञानं तुमनोजन्यमेव। तदजन्यज्ञानमत्याह-कदाप्यवी. क्षित इति / अत्यन्तावर इत्यर्थः, महदहस्यमतिगोप्यं वस्तु स महोपतिनलः / अस्या भन्या अदर्शि दर्शयानके, शेय॑न्तात् कर्मगि लुङ्गा तथा काचिच्चेटी कस्यै. चित्कामिन्य कान कान्त सगाप्य दर्शयति तद्वदिति धनिः // 40 // निद्राने बन्द हुए नेत्रदयसे तथा बाह्येन्द्रिय ( नेत्रदय, या-अन्यान्य नेत्र-कर्णादि इन्द्रियों के अपने विषयको ग्रहण करने (देखने या-देखने, सुनने आदि ) के मौन होनेसे बन्द अर्थात् अपने विषयोंको सोनेके कारण ग्रहण नहीं करते हुए हृदयमे मी छिपाकर, कमी नहीं देख गये अतिशय रास्यरूप प्रसिद्धतम राजा नलको इस दमयन्ती के लिए दिखला दिया। [मिस प्रकार किसो अदृष्टचर अद्भुत रहस्यको कोई आप्त व्यक्ति दूसरोंसे छिपाकर किसो एक आप्ततम व्यक्तिके लिए दिखला देता है, या कोई सुचतुरादूती किसी प्रियतम नायकको दूसरोंसे छिपाकर नायिकाके लिए दिखला देतो है उसी प्रकार निद्राने मी कमी नहीं देखे गये एवं अतिशय रहस्यभूत उस प्रसिद्धतम राजा नको उत्तरूप नेत्रदय तथा हायसे मी छिपाकर दिखला दिया अर्थात् दमयन्ती ने नलको स्वप्नमें देखा; किन्तु उसके नेत्रदयको तथा बाह्येन्द्रिय क्रियाशुन्य हृदय को मी पता नहीं लगा ] ( सुषुप्ति अवस्था मनके व्यापारशून्य होनेसे दमयन्तोको किस प्रकार शान हुमा ? इसका उत्तर यह है कि स्वप्न के पदार्थ बाह्येन्द्रियों से ग्राम नहीं है, अतएव वे बाह्य भी नहीं है, तथा सुखादिके अन्तर्गत नहीं होनेसे श्राभ्यन्तरिक मी नहीं है। कारण अदृष्टसाकृत केवल अविषावृत्तिरूप सुषुप्ति के विषय हैं अतएव उस सुषुप्ति अवस्थामें मात्माका ही दर्शन होता है, क्योंकि भात्मरूपसे सर्वदा स्फुरण होने में कोई बाधा नहीं है। अथवा-नकमें मो दमयन्तीका अनुराग होनेसे उनकी प्राप्तिके विना विषयमात्र से वैराग्य होने के कारण सुखकी सम्मावना नहीं होती, और सोकर जगने के बाद मैं सुखपूर्वक सोया, कुछ मी मालूम नहीं पड़ा' ऐसे अनुभवके होनेसे नकके दर्शनके बिना दमयन्तीको वैसा अनुभव नहीं हो सकता था अतएव सुषुप्तिके बाद दमयन्तीने 'मेरे मन में निरतिशयानन्दरूपसे वे नरू ही स्फुरित हुए' ऐसा नाना।) [ अब इस श्लोकका दूसरा अर्थ करते हैं-निद्रानन्य मशानसे परस्तुति में मौन हृश्यहोन अथात् मूखसे और कलियुगसे बहिर्भूत, अत्यन्त गोप्य लक्ष्मीवाले तथा मानके योग्य है नक ! विष्णु-मक्त के सहवासवाले, दुःख देनेवाले ( दुष्टों ) से नहीं देखें गये अर्थत् दुर्जन संसर्गसे वर्जित (अश्व ) नित्य उत्सवबाले तुम मेरे पति होवो / पूर्व जन्ममें नल हो दमयन्तोके पति थे, इन्द्रादि पति नहीं थे, अतएव इन्द्रादिका त्याग कर दमयन्ती को नलसे ही उक्त रूप प्रार्थना करना उचित था ] // 40 // अहा अहाभिर्महिमा हिमागमेऽप्यतिप्रपेदे प्रति तां स्मरादिताम् / तपर्तुपूर्तावपि मेदसा भरा विभावरोभिर्विभरांबभूविरे / / 41 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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